ईश्वर का कार्य -
ईश्वर एक सचेतन शक्ति है जो शरीर में आत्मरूप में अवस्थित हैं। उसके अतिरिक्त अन्य सभी जड़ प्रकृति हैं जो त्रिगुणात्मक है। मनुष्य की सभी क्रियाओ का कारण प्रकृति के ये तीन गुण सत्व,रज व तम ही है जिनसे मोहित होकर वह इसी को सत्य मानकर सभी प्रकार के अच्छे -बुरे कर्म करता है। वह 'पुरुष '(आत्मा) ही गुणातीत है जो इस प्रकृति का स्वामी है। उसका ज्ञान ही एकमात्र ज्ञान है जो मनुष्य को स्थाई सुख व शांति प्रदान कर सकता है।
ईश्वरीय योजना मनुष्य के विकास की योजना है। वह मनुष्य को सर्वशक्ति सम्पन्न बनाकर उसे संसार में भेजता है तथा वह उसे अपने ही सामान देखना चाहता है। वह किसी को दीन, हीन, दुःखी ,दरिद्री, अपाहिज, अनाथ, असहाय देखना नहीं चाहता। जिस प्रकार कोई भी पिता अपने पुत्र को इस अवस्था में देखना नहीं चाहता। वह उसे अपने ही समान तथा अपने से भी उच्च बनाना चाहता है व वैसा देखना भी चाहता है किन्तु उसका पुत्र यदि कुसंग में पड़कर हीनता को प्राप्त होकर दुःख भोगता है तो उसके कारण पिता को दोष नहीं दिया जा सकता। वह पिता दुखी अवश्य होता है। इसी प्रकार ईश्वर भी अपनी संतान को कुमार्गगामी देखकर दुखी होता है। जिस प्रकार कोई पिता अपनी सम्पूर्ण संपत्ति व ज्ञान अपने लड़के को दे देता है किन्तु वह कुमार्गगामी होकर उसका सदुपयोग नहीं करता, उसी प्रकार ईश्वर ने मनुष्य को जो उसके पास था - शरीर, मन, बुद्धि, ज्ञान, शक्ति सभी कुछ दे दिया किन्तु अज्ञानवश वह उनका सदुपयोग न कर सके तो इसमें ईश्वर कहाँ दोषी है ?
जिस प्रकार बुरे लड़के को पिता अपने घर से निकाल देता है व उसे स्वतंत्र छोड़ देता है उसी प्रकार ईश्वर की आज्ञा व उसकी योजनानुसार कार्य न करने वाले को ईश्वर भी उसे संसार में अकेला छोड़ देता है कि जैसी तेरी इच्छा हो कर तथा उसका साथ नहीं देता। जब उसकी संतान उसकी आज्ञानुसार चलने को तैयार हो जाती है, उसका अनुशासन स्वीकार कर लेती है ,सन्मार्ग पर चलने को तैयार हो जाती है तो वह उसे पुनः अपने पास बुला लेता है। यही उसकी परम गति है। ईश्वर ने इसी योजनानुसार मनुष्य को सभी साधनो से सम्पन बनाकर तथा उसके लिए सभी प्रकार की सुविधाएं जुटाकर ही उसे संसार में भेजा जिससे उसे किसी प्रकार का कष्ट न हो तथाअपने जीवन को उनन्त बना सके किन्तु मनुष्य न समझ कर अपने मन के अनुसार स्वतंत्र रूप से कार्य करने लग जाए तो उसका पतन ही होगा। ईश्वर इसमें कोई सहयता नहीं करता। गीता का सभी प्रकार का ज्ञान -ज्ञान ,कर्म ,भक्ति ,योग आदि का अर्जुन को उपदेश देने के बाद कृण्ण ने उसे यही कहा की अब तू जैसा चाहे कर। जब अर्जुन उसके अनुसार कार्य करने को तैयार हुआ कि 'करिष्ये वचनं तव ' तभी कृण्ण ने उसका साथ दिया। ऐसा ही ईश्वरीय विधान है।
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