ईश्वर ज्ञान स्वरूप है

ईश्वर चेतन स्वरूप है जो ज्ञान स्वरूप है। जड़ प्रकृति में ज्ञान का आभाव होता है। जड़ प्रकृति का मूल ऊर्जा है जो वैज्ञानिको की आधुनिक खोज है। इसी से परमाणु बनते है व परमाणु से पदार्थ बनते है जबकि चेतन का मूल   संकल्प है। इसी शक्ति से सृष्टि का विकास होता है। संकल्प चेतन में ही होता  है। यह भौतिक ऊर्जा भी कोई स्वतंत्र अस्तित्व वाली नहीं है बल्कि यह चेतन की ही शक्ति है जो घनीभूत होकर पदार्थ का रूप लेती हैं।वह ईश्वर ही पूर्ण है।  प्रकृति पूर्ण नहीं है क्योकि उसमे चेतना का आभाव है जबकि ईश्वर में जड़ व चेतन दोनों शक्तियाँ  समाहित है। ईशावाक्य उपनिषद का यही कथन है की "यह भी पूर्ण है और वह भी पूर्ण है क्योकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है तथा पूर्ण का  पूर्णत्व लेकर पूर्ण ही शेष रहता है। "इसका अर्थ स्पष्ट है की यह सृष्टि जड़ और चेतन को लेकर ही पूर्ण है। अकेला जड़ व अकेला चेतन अपूर्ण है इसी प्रकार ईश्वर ही इन दोनों शक्तियों से संपन्न होने के कारण ही  पूर्ण है। अकेला ईश्वर व अकेली प्रकृति अपूर्ण है जिसका कोई उपयोग ही नहीं हो सकता। जिस प्रकार दस- दस बच्चें पैदा करके भी नारी की पूर्णता में कोई कमी नहीं आती। वह पूर्ण ही बनी रहती है। एक पिता के हजारों लाखों शुक्राणु लाखों संताने पैदा करके भी उसके पूर्णत्व में कोई कमी नहीं आती। एक ही शुक्राणु अपने ही भीतर से पुरे शरीर का निर्माण कर देता है व फिर नया बीज तैयार कर देता है जिससे सृष्टि का निरंतर विकास होता जाता है। ठीक इसी प्रकार ईश्वर की चेतना शक्ति अपने ही भीतर से सृष्टि का विस्तार करती है। यह जड़ प्रकृति इसी कारण उससे कोई भिन्न तत्व सिद्ध नहीं होती। पूरे  में से पूरा निकल जाने पर भी वह पूर्ण ही रहता है। यही सृष्टि रहस्य है। मनुष्य पूर्ण है तो उससे  पूर्ण बालक का ही जन्म होता है,उसी का प्रतिरूप है जो उससे भिन्न नहीं है। इसी प्रकार यह जीव भी पूर्ण ईश्वर है,कोई भेद नहीं है। इसी कारण जिसे अपनी चेतना का अनुभव हो गया उसका अपने को 'अहं ब्रम्हास्मि 'कहना यथार्थ है। केवल हमें बोध नहीं है इसलिए हम अपने को शरीर मात्र मान लेते है। यह समस्त सृष्टि व जीव उसी के विभिन्न रूप मात्र है। 

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