ईश्वर क्या है ?विभिन्न धर्मों में जिस प्रकार के ईश्वर की कल्पना की है क्या वैसा कोई ईश्वर है जो इस जीव व जगत से पृथक है तथा कही स्वर्ग में बैठकर एक सम्राट की भाँति इस सृष्टि का संचालन और नियंत्रण कर रहा है अथवा वह समस्त जीव व जगत में व्याप्त होकर क्रिया का कारन मात्र है ?विभिन्न धर्मों में जिस प्रकार के ईश्वर की कल्पना की गई है वह उनकी मानसिकता के अनुकूल ही है। इसी को लेकर कई चिंतकों ने ऐसे किसी ईश्वर की सत्ता से ही इंकार कर दिया तथा कह दिया की कोई ईश्वर नहीं है। ईश्वरवादियों ने ने उन्हें नास्तिक कह दिया तथा साथ ही कइयों के मष्तिष्क में यह प्रश्न भी पैदा हो गया की 'क्या ईश्वर है ?' उन्हें वे संतुष्ट नहीं कर पाए न ईश्वर की सत्ता को ही सिद्ध कर पाए। वे अपने धर्म ग्रंथो का ही उदाहरण देकर उन्हें संतुष्ट करते रहे की हमारे धर्म में ऐसा लिखा है इसलिए मान लो। यह कोई तर्क संगत व युक्ति -युक्त बात नहीं हुई।
ईश्वर ,जीव,और जगत के विषय में हिन्दुओं की समझ गहरी है। वे किसी एक ही व्यक्ति के कथन को प्रमाण नहीं मानते बल्कि हजारों के चिंतन के आधार पर तर्क,वितर्क करके ,प्रमाण जुटाकर दृष्टान्त खोज कर ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचते है इसलिए उसी को प्रमाण मानना ही युक्तिसंगत है।
भारतीय चिंतन की पराकाष्ठा ही वेदांत दर्शन है। यही परम शास्त्र है ,परम ज्ञान दर्शन है। इससे ऊँचा कोई शास्त्र नहीं है ,यही परम दृष्टि है जो भारतीय दर्शन का परम निष्कर्ष है जो अद्वैत का दर्शन है। यह इस सनातन धर्म की सर्वोत्कृष्ट खोज है। यह मानसिक कल्पना पर आधारित न होकर प्रत्यक्ष अनुभूति पर आधारित है जिसको किसी भी प्रकार से चुनौती नहीं दी जा सकती।
दुनिया के ज्ञानियों ने इसी की पुष्टि की है। ईश्वर की मान्यता इस सृष्टि का सर्वोच्च विज्ञान है। इसकी यह चैतन्य शक्ति जीव जगत की हर इकाई में निहित है। इसी से जीवन है। विकास करना फैलना इसी चैतन्य का गुण है। इसी के लाखों प्रतिरूप बन जाते है। यह चैतन्य ही अपनी मृत्यु से पूर्व फिर बीज का निर्माण कर देता है जिससे फिर यह अपना प्रतिरूप तैयार कर सकता है। इसी से सृष्टि क्रम चलता रहता है
ईश्वर कोई न्यायाधीश जैसा नहीं है जो केवल दंड ही देता रहता है ,न वह किसी का लेखा-जोखा रखता है ,न पुरस्कार ही देता है ,न स्वर्ग नरक भेजता है। वह न प्रसन्न होता है ,न नाराज ,न वह जलजला उठाता है न आँधी तूफान लाता है। यह सब उसकी शक्ति का खेल है जो किसी नियम से कार्य करती है।
ब्रम्हाकुमारी वालों की मान्यता है की सृष्टि में तीन लोक है -मनुष्य लोक ,देवलोक तथा ब्रम्हलोक जहाँ मुक्त आत्माये रहती है इन तीनों से ऊपर 'सदाशिव' का स्थान है जो ज्योतिपुंज है व बिंदु स्वरूप है। यह परमात्मा सर्वज्ञ ,शक्तिमान तो है किन्तु सर्वव्यापी नहीं है, न घट- घट वासी ही है।आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध पुत्र व पिता का है। आत्मा परमात्मा नहीं है। ईश्वर एक है आत्माये अनेक है। वे परमात्मा नहीं हो सकती। आत्माये पुनर्जन्म लेती है।सृष्टि ईश्वर ने नहीं बनाई। संसार के कार्यों में उसका कोई हाथ नहीं है। वासना आत्मा का लक्षण है। वासना होने पर वे पुनः जन्म लेती है। मुक्ति संभव है किन्तु आत्मा परमात्मा में लीन नहीं होती। इनका अलग ही अस्तित्व बना रहता है। ब्रम्हाकुमारी की यह मान्यता भी अन्य धर्मों की भांति द्वैतवादी ही है।
इन सबके विपरीत वेदांत की मान्यता अद्वैत की है। इसके अनुसार परमात्मा का कोई कारण नहीं है, वही सबका कारण है। सभी उससे बना है। उसे किसी ने बनाया नहीं। वह सभी कारणों का कारण है। वही मूलभूत है। परमात्मा ने संसार बनाया इसका कोई कारण नहीं है। यह उसकी शक्तियों का खेल है ,लीला है। परमात्मा ऊर्जा है। यह संसार उसी ऊर्जा का सागर है। उसी का स्फुरण है। परमात्मा कोई वस्तु नहीं जो दिखाई दे किन्तु उसकी अनुभूति की जा सकती है। विद्युत् भी दिखाई नहीं देती है,किन्तु उसकी अनुभूति की जा सकती है। यह उपकरणों के माध्यम से ही क्रिया करती है। इसी प्रकार ईश्वर की भी सभी क्रियाएं प्रकृति के माध्यम से ही होती है। वह बाहर और भीतर सर्वत्र है किन्तु उसकी अनुभूति सर्वप्रथम स्वयं के भीतर ही होती है। फिर उसे सर्वत्र देखा जा सकता है। भीतर का चैतन्य ही परमात्मा है। वह न प्रकाश जैसा है न ही अंधकार जैसा। उसमे द्वैत है ही नहीं। द्वैत की अनुभूति मन के कारण होती है जो अज्ञान मात्र है। आत्मज्ञानी द्वन्द व द्वैत रहित हो जाता है।
परमात्मा की कोई परिभाषा नहीं हो सकती। वह अस्तित्व है ,एक विराट ऊर्जा है। परमात्मा तर्क या सिद्धान्त नहीं,अनुभव है। परमात्मा और उसकी कृति भिन्न नहीं ,दो नहीं है। मिट्टी से घड़ा भिन्न नहीं है बल्कि उसी के रूप है। इसी प्रकार सब कुछ परमात्मा ही है। उसका स्वयं का कोई रूप व आकार नहीं है।,सभी उसी के रूप व आकार है। उसका कोई नाम नहीं है,वह अनाम है। चीनी संत लाओत्से ने भी इस परम शक्ति को 'अनाम 'कहा है। वे कहते है की "यह अनाम ही स्वर्ग और पृथ्वी का जनक है ,बनाने वाला वही है ,किन्तु नियंत्रण नहीं करता ,वह सृष्टा है लेकिन जेलर नहीं है " 'परमात्मा सभी पदार्थों को जन्म देता है किन्तु वह उनके मालिक होने का दावा नहीं करता। वह सब कुछ करता है किन्तु ऐसा करने का दम्भ नहीं करता ,सारी सृष्टि उसके किसी विशेष नियमों से चल रही है वह नियम बदलता भी नहीं है। 'ईश्वर को इन्द्रियों से जाना नहीं जा सकता किन्तु उसके अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता ' 'जो दिखाई देता है वह महान उपयोगी है किन्तु वही धुरी है जिस पर जीवन चक्र घूमता है '
रजनीश कहते है ,'वह न अल्लाह जैसा है ,न ईश्वर जैसा ,न उसका नाम अरबी में लिखा है ,न संस्कृत में , न वह शंकराचार्य की मान्यता जैसा है ,न पोप की मान्यता जैसा। उसका अनुभव होने पर सभी मान्यताये गिर जाती है,सभी धारणाएं टूट जाती है।
ईश्वर अनुभूति का विषय है ,मानसिक कल्पना नहीं है। ज्ञानियों की दृष्टि निष्पक्ष चिंतन की रही। कोई पक्षपात नहीं,कोई दुराग्रह नहीं,कोई आग्रह नहीं। जैसा जाना कह दिया तर्कयुक्त ,सप्रमाण। अद्वैत की मान्यता हीसभी धार्मिक विवादों को समाप्त कर सकती है। द्वैत ही संघर्ष का कारण है।
वेदांत के अनुसार 'ईश्वर है 'यह कहना भी गलत है। 'जो है वही ईश्वर है। 'यह सम्पूर्ण अस्तित्व ही ईश्वर है। अस्तित्व से पृथक उसकी कोई अलग सत्ता नहीं है न वह इस अस्तित्व से भिन्न है। अंश भी पूर्ण का ही हिस्सा है। लहर समुद्र से भिन्न नहीं है किन्तु वह समुद्र नहीं है। दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। जिस प्रकार नृत्य के बिना नर्तक नहीं हो सकता उसी प्रकार सृष्टि के बिना सृष्टा नहीं हो सकता ,निर्माण के बिना निर्माता नहीं हो सकता। दोनों सापेक्ष है एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही नहीं रह जाता। ईश्वर की अवधारणा भी सृष्टि के सापेक्ष है। कण-कण में ईश्वर का स्वरुप मानने के कारण ही वेदांत ने 'सर्वं खलिषदं ब्रम्ह 'की घोषणा की।
चीनी संत लाओत्से ने भी कहा है ,''वह कही नहीं है क्योकि वह सर्वत्र है,वह कुछ नहीं है क्योकि वही सब कुछ है। ''वह व्यक्तिरूप नहीं है जो किसी खास स्थान पर हो। ईश्वर ,जीव और जगत एक ही परम शक्ति के तीन रूप है जो उससे भिन्न नहीं है। यह सम्पूर्ण अस्तित्व एक ही इकाई है।
'ब्रम्ह और ईश्वर 'एक ही परम सत्य के दो नाम है। ब्रम्ह है इसका अप्रकट रूप तथा ईश्वर उसी का प्रकट रूप है वही अक्षर है जिसका कभी नाश नहीं होता। जिस प्रकार चन्द्रमा की शक्ति से ज्वार आता है ,चुम्बक लोहे को खींचता है,सूर्य ताप से जल वाष्प बनता है ,गुरुत्वाकर्षण खींचता है,जो उसके स्वाभाविक गुण है ,इन्हे कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता ,न कोई आदेश ही देना पड़ता है ,न कोई फरमान ही जारी करना पड़ता है। उसी प्रकार परमात्मा की शक्ति से ही सभी कार्य होते है जो उसका स्वाभाविक गुण है। वह स्वयं नहीं करता। न वह कोई आदेश ही देता है,न दंड व् पुरस्कार देता है। वह उदासीन है। सभी कुछ प्रकृति के गुणों के अनुसार हो रहा है। जिस प्रकार भौतिक जगत का मूल ऊर्जा है उसी प्रकार चेतना शक्ति का मूल चेतन तत्व है जो सभी प्रकार की क्रिया का कारण है
ईश्वर ,जीव,और जगत के विषय में हिन्दुओं की समझ गहरी है। वे किसी एक ही व्यक्ति के कथन को प्रमाण नहीं मानते बल्कि हजारों के चिंतन के आधार पर तर्क,वितर्क करके ,प्रमाण जुटाकर दृष्टान्त खोज कर ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचते है इसलिए उसी को प्रमाण मानना ही युक्तिसंगत है।
भारतीय चिंतन की पराकाष्ठा ही वेदांत दर्शन है। यही परम शास्त्र है ,परम ज्ञान दर्शन है। इससे ऊँचा कोई शास्त्र नहीं है ,यही परम दृष्टि है जो भारतीय दर्शन का परम निष्कर्ष है जो अद्वैत का दर्शन है। यह इस सनातन धर्म की सर्वोत्कृष्ट खोज है। यह मानसिक कल्पना पर आधारित न होकर प्रत्यक्ष अनुभूति पर आधारित है जिसको किसी भी प्रकार से चुनौती नहीं दी जा सकती।
दुनिया के ज्ञानियों ने इसी की पुष्टि की है। ईश्वर की मान्यता इस सृष्टि का सर्वोच्च विज्ञान है। इसकी यह चैतन्य शक्ति जीव जगत की हर इकाई में निहित है। इसी से जीवन है। विकास करना फैलना इसी चैतन्य का गुण है। इसी के लाखों प्रतिरूप बन जाते है। यह चैतन्य ही अपनी मृत्यु से पूर्व फिर बीज का निर्माण कर देता है जिससे फिर यह अपना प्रतिरूप तैयार कर सकता है। इसी से सृष्टि क्रम चलता रहता है
ईश्वर कोई न्यायाधीश जैसा नहीं है जो केवल दंड ही देता रहता है ,न वह किसी का लेखा-जोखा रखता है ,न पुरस्कार ही देता है ,न स्वर्ग नरक भेजता है। वह न प्रसन्न होता है ,न नाराज ,न वह जलजला उठाता है न आँधी तूफान लाता है। यह सब उसकी शक्ति का खेल है जो किसी नियम से कार्य करती है।
ब्रम्हाकुमारी वालों की मान्यता है की सृष्टि में तीन लोक है -मनुष्य लोक ,देवलोक तथा ब्रम्हलोक जहाँ मुक्त आत्माये रहती है इन तीनों से ऊपर 'सदाशिव' का स्थान है जो ज्योतिपुंज है व बिंदु स्वरूप है। यह परमात्मा सर्वज्ञ ,शक्तिमान तो है किन्तु सर्वव्यापी नहीं है, न घट- घट वासी ही है।आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध पुत्र व पिता का है। आत्मा परमात्मा नहीं है। ईश्वर एक है आत्माये अनेक है। वे परमात्मा नहीं हो सकती। आत्माये पुनर्जन्म लेती है।सृष्टि ईश्वर ने नहीं बनाई। संसार के कार्यों में उसका कोई हाथ नहीं है। वासना आत्मा का लक्षण है। वासना होने पर वे पुनः जन्म लेती है। मुक्ति संभव है किन्तु आत्मा परमात्मा में लीन नहीं होती। इनका अलग ही अस्तित्व बना रहता है। ब्रम्हाकुमारी की यह मान्यता भी अन्य धर्मों की भांति द्वैतवादी ही है।
इन सबके विपरीत वेदांत की मान्यता अद्वैत की है। इसके अनुसार परमात्मा का कोई कारण नहीं है, वही सबका कारण है। सभी उससे बना है। उसे किसी ने बनाया नहीं। वह सभी कारणों का कारण है। वही मूलभूत है। परमात्मा ने संसार बनाया इसका कोई कारण नहीं है। यह उसकी शक्तियों का खेल है ,लीला है। परमात्मा ऊर्जा है। यह संसार उसी ऊर्जा का सागर है। उसी का स्फुरण है। परमात्मा कोई वस्तु नहीं जो दिखाई दे किन्तु उसकी अनुभूति की जा सकती है। विद्युत् भी दिखाई नहीं देती है,किन्तु उसकी अनुभूति की जा सकती है। यह उपकरणों के माध्यम से ही क्रिया करती है। इसी प्रकार ईश्वर की भी सभी क्रियाएं प्रकृति के माध्यम से ही होती है। वह बाहर और भीतर सर्वत्र है किन्तु उसकी अनुभूति सर्वप्रथम स्वयं के भीतर ही होती है। फिर उसे सर्वत्र देखा जा सकता है। भीतर का चैतन्य ही परमात्मा है। वह न प्रकाश जैसा है न ही अंधकार जैसा। उसमे द्वैत है ही नहीं। द्वैत की अनुभूति मन के कारण होती है जो अज्ञान मात्र है। आत्मज्ञानी द्वन्द व द्वैत रहित हो जाता है।
परमात्मा की कोई परिभाषा नहीं हो सकती। वह अस्तित्व है ,एक विराट ऊर्जा है। परमात्मा तर्क या सिद्धान्त नहीं,अनुभव है। परमात्मा और उसकी कृति भिन्न नहीं ,दो नहीं है। मिट्टी से घड़ा भिन्न नहीं है बल्कि उसी के रूप है। इसी प्रकार सब कुछ परमात्मा ही है। उसका स्वयं का कोई रूप व आकार नहीं है।,सभी उसी के रूप व आकार है। उसका कोई नाम नहीं है,वह अनाम है। चीनी संत लाओत्से ने भी इस परम शक्ति को 'अनाम 'कहा है। वे कहते है की "यह अनाम ही स्वर्ग और पृथ्वी का जनक है ,बनाने वाला वही है ,किन्तु नियंत्रण नहीं करता ,वह सृष्टा है लेकिन जेलर नहीं है " 'परमात्मा सभी पदार्थों को जन्म देता है किन्तु वह उनके मालिक होने का दावा नहीं करता। वह सब कुछ करता है किन्तु ऐसा करने का दम्भ नहीं करता ,सारी सृष्टि उसके किसी विशेष नियमों से चल रही है वह नियम बदलता भी नहीं है। 'ईश्वर को इन्द्रियों से जाना नहीं जा सकता किन्तु उसके अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता ' 'जो दिखाई देता है वह महान उपयोगी है किन्तु वही धुरी है जिस पर जीवन चक्र घूमता है '
रजनीश कहते है ,'वह न अल्लाह जैसा है ,न ईश्वर जैसा ,न उसका नाम अरबी में लिखा है ,न संस्कृत में , न वह शंकराचार्य की मान्यता जैसा है ,न पोप की मान्यता जैसा। उसका अनुभव होने पर सभी मान्यताये गिर जाती है,सभी धारणाएं टूट जाती है।
ईश्वर अनुभूति का विषय है ,मानसिक कल्पना नहीं है। ज्ञानियों की दृष्टि निष्पक्ष चिंतन की रही। कोई पक्षपात नहीं,कोई दुराग्रह नहीं,कोई आग्रह नहीं। जैसा जाना कह दिया तर्कयुक्त ,सप्रमाण। अद्वैत की मान्यता हीसभी धार्मिक विवादों को समाप्त कर सकती है। द्वैत ही संघर्ष का कारण है।
वेदांत के अनुसार 'ईश्वर है 'यह कहना भी गलत है। 'जो है वही ईश्वर है। 'यह सम्पूर्ण अस्तित्व ही ईश्वर है। अस्तित्व से पृथक उसकी कोई अलग सत्ता नहीं है न वह इस अस्तित्व से भिन्न है। अंश भी पूर्ण का ही हिस्सा है। लहर समुद्र से भिन्न नहीं है किन्तु वह समुद्र नहीं है। दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। जिस प्रकार नृत्य के बिना नर्तक नहीं हो सकता उसी प्रकार सृष्टि के बिना सृष्टा नहीं हो सकता ,निर्माण के बिना निर्माता नहीं हो सकता। दोनों सापेक्ष है एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही नहीं रह जाता। ईश्वर की अवधारणा भी सृष्टि के सापेक्ष है। कण-कण में ईश्वर का स्वरुप मानने के कारण ही वेदांत ने 'सर्वं खलिषदं ब्रम्ह 'की घोषणा की।
चीनी संत लाओत्से ने भी कहा है ,''वह कही नहीं है क्योकि वह सर्वत्र है,वह कुछ नहीं है क्योकि वही सब कुछ है। ''वह व्यक्तिरूप नहीं है जो किसी खास स्थान पर हो। ईश्वर ,जीव और जगत एक ही परम शक्ति के तीन रूप है जो उससे भिन्न नहीं है। यह सम्पूर्ण अस्तित्व एक ही इकाई है।
'ब्रम्ह और ईश्वर 'एक ही परम सत्य के दो नाम है। ब्रम्ह है इसका अप्रकट रूप तथा ईश्वर उसी का प्रकट रूप है वही अक्षर है जिसका कभी नाश नहीं होता। जिस प्रकार चन्द्रमा की शक्ति से ज्वार आता है ,चुम्बक लोहे को खींचता है,सूर्य ताप से जल वाष्प बनता है ,गुरुत्वाकर्षण खींचता है,जो उसके स्वाभाविक गुण है ,इन्हे कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता ,न कोई आदेश ही देना पड़ता है ,न कोई फरमान ही जारी करना पड़ता है। उसी प्रकार परमात्मा की शक्ति से ही सभी कार्य होते है जो उसका स्वाभाविक गुण है। वह स्वयं नहीं करता। न वह कोई आदेश ही देता है,न दंड व् पुरस्कार देता है। वह उदासीन है। सभी कुछ प्रकृति के गुणों के अनुसार हो रहा है। जिस प्रकार भौतिक जगत का मूल ऊर्जा है उसी प्रकार चेतना शक्ति का मूल चेतन तत्व है जो सभी प्रकार की क्रिया का कारण है
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