ईश्वर, जीव और जगत

 जीव और जगत      


इस संपूर्ण ब्रम्हाण्ड में हमें दो ही प्रकार की सृष्टि दृष्टिगोचर होती है जिनमे एक है ये जड़ सृष्टि जो भौतिक पदार्थों से निर्मित है जिसके पाँच मुख्य घटक है-पृथ्वी ,जल,अग्नि,वायु और आकाश तथा दूसरी यह चेतन सृष्टि है जिनमे वनस्पति जीव-जंतु, पशु -पक्षी व मनुष्य की गणना होती है। इन असंख्य चेतन-जीव एवं असंख्य जड़ विषयों को लेकर ही यह 'विश्व ब्रम्हाण्ड' है।
        
यह जड़-चेतनमय विशाल विश्व जिससे उत्पन्न होता है, जिसका आश्रय लेकर विद्यमान रहता है,जिससे नियंत्रित होता है तथा अंत में जिसमे विलीन हो जाता है,उस एक अद्वितीय पूर्ण चैतन्यमय परमपुरुष की सत्ता को ही 'ईश्वर ','परमात्मा ','परमपुरुष','भगवान','ब्रम्ह'आदि नामों से अभिहित किया जाता हैं,इन तीनों की सम्मिलित सत्ता ही परिपूर्ण सत्ता है। ये तीनों परस्पर सापेक्ष है। एक दुसरे का आश्रय करके ही इनका साक्षात् परिचय होता है ये तीनो नित्य विद्यमान रहते है। 
             जीव का स्वरुप 'मैं 'है यही 'मैं '(अहम् )कर्ता और भोक्ता होता है। यही ज्ञाता,द्रष्टा व श्रोता होता है। इसी से कर्म, भोग,ज्ञान ,दर्शन श्रवण होता है क्योकिं कर्ता के बिना कर्म नहीं होता,ज्ञाता के बिना ज्ञान नहीं होता,द्रष्टा के बिना दर्शन नहीं होता ,श्रोता के बिना श्रवण नहीं होता आदि।  इन सब का आश्रय'जीव' है। इन असंख्य जीवों में जो एक मात्र चैतन्यतत्व है वही इनका प्रधान धर्म या लक्षण है क्योकिं चैतन्य के बिना ज्ञान,कर्म,भोग,दर्शन,श्रवण आदि संभव नहीं है। अतः यह चैतन्य ही'जीव'कहा जाता है
   जब यह जीव करता,भोक्ता,ज्ञाता,द्रष्टा,श्रोता है तो उसका विषय समूह भी होना चाहिए यह भौतिक जगत ही इसका विषय है जिसका वह भोग करता है,कार्य करता है,देखता है,सुनता है,जनता है। ये विषय सभी जड़ है जबकि जीव चेतन है। ये जीव और जगत भी सापेक्ष है तथा एक दुसरे पर आश्रित है। जगत से ही जीव का अस्तित्व है तथा जीव से ही जगत का ज्ञान होता है। इस भौतिक जगत के पांच घटक है-आकाश,वायु,अग्नि,जल,और पृथ्वी। जिनके पांच विषय है -शब्द,स्पर्श,रूप,रस,और गन्ध। जिनके ज्ञान के लिए पांच ज्ञानेन्द्रियाँ है-कर्ण,त्वचा,चक्षु,जिव्य्हा और नासिका जो इनका ज्ञान कराती है। इस स्थूल जगत के पीछे एक'सूक्ष्म जगत'है जिसका ज्ञान अन्तःकारण से होता है। स्थूल इन्द्रियां इन्हे नहीं जान सकती। इस सुक्ष्म जगत के पीछे भी एक 'कारण जगत' है जो अव्यक्त है। इसे जानने के लिए मनुष्य के पास कोई इन्द्रिय या कारण नहीं है। यह शुद्ध चैतन्य है जो मन,बुद्धि,चित्त और अहंकार से परे है। यह अनिर्वचनीय है। वही शुद्ध चैतन्य है जो इस संपूर्ण जड़-चेतनात्मक जगत का मूल कारन है जिसे वेदांत ने 'ब्रम्ह'तथा शैवों ने 'शिव' कहा है। भक्त इसे ईश्वर कहते है।
यह जगत शाश्वत नहीं है।निरंतर बदलता रहा है,नित्य परिवर्तनशील है। इसे सत्य नहीं  सकता। सत्य तो उसी को कहा जा सकता है जो नित्य हो,शाश्वत हो।बुद्ध इस जगत को इसीलिये'क्षणिक सत्य' कहते है तथा आनंदमूर्ति जी ने  इसे 'सापेक्ष सत्य' कहा है। वेदांत ने इसे मिथ्या कहा है क्योकिं यह है तो असत किन्तु सत जैसा भासता है जो भ्रममात्र है। यह शरीर भी नित्य बदल रहा है। जन्म,बालपन,जवानी ,बुढ़ापा,मृत्यु और फिर जन्म। कुछ भी स्थिर नहीं है। एक प्रवाह है जिसे रोकना असंभव है। सुख,दुःख,प्रेम,घृणा,मित्रता,शत्रुता,राग,द्वेष आदि सभी अस्थायी है। धन,यश,मान,सम्मान,प्रतिष्ठा,गौरव,कुछ भी शाश्वत नहीं है आते है और चले जाते है। यह जगत अपने नियम से चल रहा है जिन्हे मनुष्य बदल  नहीं सकता। उसके साथ मनुष्य को अपना सामंजस्य बिठाना पड़ेगा किन्तु मनुष्य इन्हे अपनी   इच्छा अनुसार चलाना चाहता हैयही उसके सभी प्रकार केरोग,शोक,अशांति,उपद्रव,राग,द्वेष,घृणा,वैमनस्य,तनाव,हिंसा,आदि सभी दुखो का कारण बन जाता है। यह जगत मनुष्य को दुःख नहीं देता। वह अपने अज्ञान के कारण ही दुःख भोग रहा है। इस जगत का अपना अलग ही विज्ञान है तथा मनुष्य की दृष्टि इससे भिन्न प्रकार की है जिनमे सामंजस्य का आभाव है। इस सृष्टि के नियमों व इसकी कार्य प्रणाली को जानकर हि मनुश्य सुखी हो सकता है।   

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