१. यह सम्पूर्ण सृष्टि त्रिआयामी है। ईश्वर ,जीव व जगत इसके तीन आयाम है।
२.ये तीनो एक दूसरे पर आश्रित है इन तीनो की सत्ता ही परिपूर्ण सत्ता है।
३.इन तीनो का मूल स्वरुप ब्रम्ह है जो अव्यक्त अवस्था में रहता है।
४.ये तीनो उसी के व्यक्त रूप है।
५.ईश्वर की विभिन्न मान्यताये मानसिक स्तर की है।
६.ईश्वर एक विराट ऊर्जा है। वह स्वयं कर्ता नहीं बल्कि सभी क्रियाओ का कारण हैं।
७.क्रिया प्रकृति के गुणों के कारण होतीं है.
८.परमात्मा व्यक्ति नहीं शक्ति है यह सृष्टि उसी की शक्ति का विकास हैं,वह एक चैतन्य ऊर्जा हैं।
९.यह चेतना शक्ति ज्ञान स्वरुप है।
१०.समष्टि में जो ईश्वर है ,शरीर में वही आत्मा हैं। दोनों एक ही चैतन्य शक्ति के दो नाम है।
११. जीवन भी त्रिआयामी है। आत्मा ,जीवात्मा और प्रकृति इसके तीन आयाम है। तीनो से ही जीवन की पूर्णता है। एक आधा अधूरा है।
१२.ईश्वर और आत्मा दृश्य नहीं है ,वह दर्शन शक्ति है .
१३.आत्मा ,जीवात्मा और प्रकृति के ज्ञान के लिए तीन विज्ञानों का विकास हुआ। आत्मा के ज्ञान के लिए आध्यात्म ,जीवात्मा के लिए धर्म तथा प्रकृति के लिए भौतिक विज्ञानं का विकास हुआ।
१४.इन तीनो के ज्ञान से ही जीवन में पूर्णता आती है। किसी को भी छोड़ा नहीं जा सकता।
१५.धर्म एक हैं ,सम्प्रदाय अनेक हैं। ज्ञान एक है।
१६.भिन्नता देखना मन का धर्म है।
१७. मन सापेक्ष सत्य को ही जान सकता है। निरपेक्ष सत्य को वह नहीं जान सकता।
१८.अहंकार के कारण ही आत्मा का स्वरुप जीवात्मा बन जाता है। वही करता और भोक्ता बन जाता है।
१९.विकास जीवात्मा का होता हैं,आत्मा का नहीं।
२०. जीवात्मा ही आत्मा का अनुभव करती है।
२१.सत्य भिक्षा में नहीं मिलता ,आत्म ज्ञान भी भिक्षा में नहीं मिलता ,साधना करनी पड़ती है.
२२. आत्मा ज्ञान के मार्ग को ही 'योग' कहते है।
२३. योग के दो मार्ग है -ध्यान योग व क्रिया योग। दोनों ही शुद्ध है.
२४.भावना प्रधान व्यक्ति के लिए भक्ति योग अनुकूल पड़ता है। पुरुषार्थ परायण व्यक्ति के लिए कर्म योग है,बुद्धिजीवी के लिए ज्ञान योग तथा अहंकारी व्यक्ति के लिए हठ योग अनुकूल पड़ता है।
२५.योग समाधि का विज्ञान है। २६. आत्मा को पाना नहीं हैं वह तो प्राप्त है, जिसका अनुभव करना हैं।
२७. इसका अनुभव समाधि अवस्था में सर्वप्रथम मन को ही होता है।
२८. आत्मानुभव की विधि ध्यान है तथा समाधि उपलब्धि है।
२९.चित्त की शून्य व जाग्रत अवस्था ही समाधि है।
३०. ध्यान सचेतन निद्रा है। सोते हुए जागना व जागते हुए सोना ध्यान है। निर्विचार चेतना ही ध्यान है।
३१. ध्यान अक्रिया का मार्ग है,इसमें करने के भाव को छोड़ना हैं।
३२. अक्रिया में जाने से क्रिया बंद नहीं होती ,कर्तापन छूट जाता है।
३३. आत्म ज्ञान की साधना के दो मार्ग है -संकल्प और समर्पण
३४. साधना में शरीर का स्वस्थ व निरोग रहना आवश्यक है।
३५. आत्म -ज्ञान के लिए शरीर को सताना नहीं हैं। वही माध्यम है जिसका उपयोग ध्यान में करना है।
३६. आत्म -ज्ञान में पूर्व जन्म के संस्कार व सद्गुरु सहायक होते है।
३७. सत्य की साधना में विचारों की निष्पक्षता आवश्यक है।
३८. आत्म -ज्ञान के लिए अहंकार से मुक्त होना है।
२.ये तीनो एक दूसरे पर आश्रित है इन तीनो की सत्ता ही परिपूर्ण सत्ता है।
३.इन तीनो का मूल स्वरुप ब्रम्ह है जो अव्यक्त अवस्था में रहता है।
४.ये तीनो उसी के व्यक्त रूप है।
५.ईश्वर की विभिन्न मान्यताये मानसिक स्तर की है।
६.ईश्वर एक विराट ऊर्जा है। वह स्वयं कर्ता नहीं बल्कि सभी क्रियाओ का कारण हैं।
७.क्रिया प्रकृति के गुणों के कारण होतीं है.
८.परमात्मा व्यक्ति नहीं शक्ति है यह सृष्टि उसी की शक्ति का विकास हैं,वह एक चैतन्य ऊर्जा हैं।
९.यह चेतना शक्ति ज्ञान स्वरुप है।
१०.समष्टि में जो ईश्वर है ,शरीर में वही आत्मा हैं। दोनों एक ही चैतन्य शक्ति के दो नाम है।
११. जीवन भी त्रिआयामी है। आत्मा ,जीवात्मा और प्रकृति इसके तीन आयाम है। तीनो से ही जीवन की पूर्णता है। एक आधा अधूरा है।
१२.ईश्वर और आत्मा दृश्य नहीं है ,वह दर्शन शक्ति है .
१३.आत्मा ,जीवात्मा और प्रकृति के ज्ञान के लिए तीन विज्ञानों का विकास हुआ। आत्मा के ज्ञान के लिए आध्यात्म ,जीवात्मा के लिए धर्म तथा प्रकृति के लिए भौतिक विज्ञानं का विकास हुआ।
१४.इन तीनो के ज्ञान से ही जीवन में पूर्णता आती है। किसी को भी छोड़ा नहीं जा सकता।
१५.धर्म एक हैं ,सम्प्रदाय अनेक हैं। ज्ञान एक है।
१६.भिन्नता देखना मन का धर्म है।
१७. मन सापेक्ष सत्य को ही जान सकता है। निरपेक्ष सत्य को वह नहीं जान सकता।
१८.अहंकार के कारण ही आत्मा का स्वरुप जीवात्मा बन जाता है। वही करता और भोक्ता बन जाता है।
१९.विकास जीवात्मा का होता हैं,आत्मा का नहीं।
२०. जीवात्मा ही आत्मा का अनुभव करती है।
२१.सत्य भिक्षा में नहीं मिलता ,आत्म ज्ञान भी भिक्षा में नहीं मिलता ,साधना करनी पड़ती है.
२२. आत्मा ज्ञान के मार्ग को ही 'योग' कहते है।
२३. योग के दो मार्ग है -ध्यान योग व क्रिया योग। दोनों ही शुद्ध है.
२४.भावना प्रधान व्यक्ति के लिए भक्ति योग अनुकूल पड़ता है। पुरुषार्थ परायण व्यक्ति के लिए कर्म योग है,बुद्धिजीवी के लिए ज्ञान योग तथा अहंकारी व्यक्ति के लिए हठ योग अनुकूल पड़ता है।
२५.योग समाधि का विज्ञान है। २६. आत्मा को पाना नहीं हैं वह तो प्राप्त है, जिसका अनुभव करना हैं।
२७. इसका अनुभव समाधि अवस्था में सर्वप्रथम मन को ही होता है।
२८. आत्मानुभव की विधि ध्यान है तथा समाधि उपलब्धि है।
२९.चित्त की शून्य व जाग्रत अवस्था ही समाधि है।
३०. ध्यान सचेतन निद्रा है। सोते हुए जागना व जागते हुए सोना ध्यान है। निर्विचार चेतना ही ध्यान है।
३१. ध्यान अक्रिया का मार्ग है,इसमें करने के भाव को छोड़ना हैं।
३२. अक्रिया में जाने से क्रिया बंद नहीं होती ,कर्तापन छूट जाता है।
३३. आत्म ज्ञान की साधना के दो मार्ग है -संकल्प और समर्पण
३४. साधना में शरीर का स्वस्थ व निरोग रहना आवश्यक है।
३५. आत्म -ज्ञान के लिए शरीर को सताना नहीं हैं। वही माध्यम है जिसका उपयोग ध्यान में करना है।
३६. आत्म -ज्ञान में पूर्व जन्म के संस्कार व सद्गुरु सहायक होते है।
३७. सत्य की साधना में विचारों की निष्पक्षता आवश्यक है।
३८. आत्म -ज्ञान के लिए अहंकार से मुक्त होना है।
३९. अहंकार से मुक्त होना ही मुक्ति है।
४०. साधक को अपना जीवन संतुलित रखना चाहिए। किसी भी क्षेत्र में अति न हो।
४१. उसे चिंता व तनावमुक्त रहना चाहिए।
४२. प्रयोगकाल में भूत की स्मृति व भविष्य की चिंता से मुक्त रहना चाहिए।
४३. साधना में स्वच्छ मन से जाना चाहिए।
४४. आरम्भ में नियम -संयम आवश्यक है।
४५. शरीर के प्रति न आसक्ति रखनी चाहिए न उसके प्रति क्रूर ही होना चाहिए।
४६. इसमें सरलता आवश्यक है।
४७. साधक को दिन में कुछ समय मौन रहना चाहिए।
४८. थोड़ी देर न करने की अवस्था में अपने को छोड़ देना चाहिए।
४९. शिथिल होकर बैठना तथा जो सुनाई दे उसे जागरूकता से सुनना ,केवल सुनना अपने विचार न देना।
५०. उपलब्धि का कोई निश्चित समय व अवधि नहीं है. यह साधक की मनोदशा पर निर्भर है।
५१. इसकी पूर्व तयारी होने पर आत्म ज्ञान निश्चित हो जाता है।
(इसका विस्तार हम क्रमशः आने वाले पोस्ट में देने का प्रयास करेंगे यदि इसकी भावना के अनुसार साधना की गई तो लाभ अवश्य मिलेगा ऐसी हमारी मान्यता है )
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