ईश्वर की यह जड़ प्रकृति ही विभिन्न रूपों का निर्माण करती है जिससे यह भौतिक सृष्टि अस्तित्व में आती है किन्तु उसकी यह चेतन शक्ति ज्ञान- स्वरुप है। ज्ञान ही समस्त क्रियाओं का कारण बनता है। विचार,इच्छा,भावना,संकल्प,कल्पना, अनुभूति आदि चेतना शक्ति से ही आते हैं। इसी से राग, द्वेष, प्रेम,हिंसा,घृणा ,वैमनस्य आदि अनेक भाव चेतना के कारण ही मन में पैदा होते है। यही चेतना प्रकृति के सत्व,रज,तम गुणों से मिलकर विभिन्न प्रकार के भावों को पैदा करती है। ईश्वर की इसी ज्ञान-शक्ति से ही सृष्टि की उत्पत्ति का विचार उठते ही उसमे कामना का स्फुरण होता है जिसे 'ब्रम्हाा 'नाम दिया गया। ब्रम्हाा से ही दो प्रकार की शक्तियों का अविर्भाव हुआ जिन्हें ज्ञान शक्ति को 'गायत्री 'नाम दिया गया। ब्रम्हाा की इसी चेतन शक्ति गायत्री से चार प्रकार के ज्ञान का अविर्भाव हुआ जिन्हें चार वेद कहा जाता है। वेद का अर्थ ही ज्ञान है। ब्रम्हाा कोई मनुष्य जैसा नहीं हैं बल्कि उस चैतन्य-शक्ति का नाम है जो ज्ञान स्वरुप है। इसी कारण गायत्री को वेद माता कहा गया है। ज्ञान तो एक ही है किन्तु सुविधा की दृष्टि से इसे चार भागों में विभक्त किया गया जिनको चार वेद कहा जाता है।
'ऋग्वेद ' इसका ज्ञान भाग है जिसमे सृष्टि में पाए जाने वाले तत्वों का विवेचन है जिनसे सृष्टि का निर्माण हुआ है। यह तत्व ज्ञान का विषय है।
'यजुर्वेद ' में पुरुषार्थ व कर्म का विवेचन है। इसी से सृष्टि रचना का कार्य आरम्भ होता है। ये तत्व किस प्रकार क्रिया करके सृष्टि रचना करते है इसका विवेचन है। यह कर्म प्रधान है।
'सामवेद ' में विभिन्न कलाओं का विवेचन है।
'अथर्ववेद ' में अर्थ,धन,वैभव आदि का विवेचन है।
प्रत्येक प्राणी की चेतना इन चारों के अंतर्गत परिभ्रमण करती है ज्ञान,कर्म,कला और वैभव ये चरों मिलकर ही धर्म,मोक्ष,काम और अर्थ की सिद्धि करने वाले है। इन्ही को ब्रम्हाा के चार मुख कहा जाता है अर्थात चार प्रकार का ज्ञान ब्रम्हाा से प्रकट हुआ। ये ही भगवान विष्णु की चार भुजाएँ है। इसी चार प्रकार के ज्ञान के लिए चार वर्णों की व्यवस्था की गयी तथा चार आश्रय निश्चित किये गए।
सभी जीव चैतन्य -सृष्टि में आते है 'जड़ पदार्थ का संचालन करने वाली शक्ति 'प्रकृति ' है जिससे पंच भौतिक सृष्टि की रचना होती है जिसका आधार 'परमाणु ' है चैतन्य का आधार 'संकल्प ' है। ये ही ब्रम्हाा की दो भुजाएँ है। संकल्प ज्ञान से ही होता है जो ईश्वर का गुण है। संकल्प ही सृष्टि रचना का कारण है। बिना संकल्प के कोई भी कार्य नहीं हो सकता। प्रकृति की शक्तियाँ उसी संकल्प के अनुसार ही क्रिया करती है। वह स्वयं कोई रचना नहीं कर सकती। ईश्वर,जीव व जगत को भिन्न-भिन्न मानने से ही अन्य कई प्रश्न पैदा हो जाते है जिससे इनकी भिन्न सत्ता को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
'ऋग्वेद ' इसका ज्ञान भाग है जिसमे सृष्टि में पाए जाने वाले तत्वों का विवेचन है जिनसे सृष्टि का निर्माण हुआ है। यह तत्व ज्ञान का विषय है।
'यजुर्वेद ' में पुरुषार्थ व कर्म का विवेचन है। इसी से सृष्टि रचना का कार्य आरम्भ होता है। ये तत्व किस प्रकार क्रिया करके सृष्टि रचना करते है इसका विवेचन है। यह कर्म प्रधान है।
'सामवेद ' में विभिन्न कलाओं का विवेचन है।
'अथर्ववेद ' में अर्थ,धन,वैभव आदि का विवेचन है।
प्रत्येक प्राणी की चेतना इन चारों के अंतर्गत परिभ्रमण करती है ज्ञान,कर्म,कला और वैभव ये चरों मिलकर ही धर्म,मोक्ष,काम और अर्थ की सिद्धि करने वाले है। इन्ही को ब्रम्हाा के चार मुख कहा जाता है अर्थात चार प्रकार का ज्ञान ब्रम्हाा से प्रकट हुआ। ये ही भगवान विष्णु की चार भुजाएँ है। इसी चार प्रकार के ज्ञान के लिए चार वर्णों की व्यवस्था की गयी तथा चार आश्रय निश्चित किये गए।
सभी जीव चैतन्य -सृष्टि में आते है 'जड़ पदार्थ का संचालन करने वाली शक्ति 'प्रकृति ' है जिससे पंच भौतिक सृष्टि की रचना होती है जिसका आधार 'परमाणु ' है चैतन्य का आधार 'संकल्प ' है। ये ही ब्रम्हाा की दो भुजाएँ है। संकल्प ज्ञान से ही होता है जो ईश्वर का गुण है। संकल्प ही सृष्टि रचना का कारण है। बिना संकल्प के कोई भी कार्य नहीं हो सकता। प्रकृति की शक्तियाँ उसी संकल्प के अनुसार ही क्रिया करती है। वह स्वयं कोई रचना नहीं कर सकती। ईश्वर,जीव व जगत को भिन्न-भिन्न मानने से ही अन्य कई प्रश्न पैदा हो जाते है जिससे इनकी भिन्न सत्ता को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
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