वेदान्त के अनुसार ईश्वर कर्ता नहीं है वह समस्त क्रियाओं का कारण है। क्रिया केवल प्रकृति के गुणों के अनुसार ही होती है किन्तु प्रकृति तो जड़ है जो स्वयं क्रिया नहीं कर सकती। क्रिया का कारण ही चेतना शक्ति ही है। यह चेतन -शक्ति ईश्वर की एक शक्ति है जो क्रिया का कारण है। स्वयं ईश्वर कोई क्रिया नहीं करता। वह निरपेक्ष भाव से केवल द्रष्टा बना रहता है। यह चेतन शक्ति ही सृष्टि निर्माण की योजना बनाती हैं। वही उसका संचालन व नियंत्रण करती है।यही चेतन -शक्ति सृष्टि के कण-कण में व्याप्त होकर सभी प्रकार की क्रियाओं का कारण है
इस सृष्टि में जो कुछ हो रहा है वह अनायास,आकस्मिक या अविचार पूर्ण नहीं है। वह ईश्वर की किसी योजनानुसार ही हो रहा है जिससे इतनी व्यवस्थित सृष्टि की रचना संभव हो सकी है। विज्ञान ने केवल भौतिक तत्वों की खोज की जिससे वह भौतिक सृष्टि की तो जानकारी प्राप्त कर सका किन्तु चेतन की खोज से वह अनभिज्ञ ही रहा जिससे वह जीव जगत की क्रियाओं को नहीं समझ सका। केवल जड़ तत्वों को मिलाने मात्र से जीव-जगत की रचना नहीं हो सकती जब तक की उसमे इस चेतन तत्व की विद्यमानता न हो। वनस्पति के बीजों में, पक्षियों के अंडों में,मनुष्य के शुक्र में जो चेतन तत्व होता है वह उसी प्रकार के जीव की रचना करता है जैसा उस जीव का संकल्प होता है। उसी की योजनानुसार वह आकृति का निर्माण करता है। विकास का कारण केवल वही चेतना-शक्ति है। भौतिक पदार्थों का विकास नहीं होता न कोई सम्भावना ही है। ईश्वर की यह चेतन शक्ति प्रकृति के माध्यम से ही कार्य करती है। बिना प्रकृति के इसका कोई उपयोग नहीं हो सकता। जड़ और चेतन का संयोग ही जीव सृष्टि का कारण है। यह चेतन ही बीज रूप है जो प्रकृति के गर्भ में स्थित रहकर उसकी क्रिया का कारण बनता है। यह जड़ और चेतन उस एक ही ईश्वर की दो शक्तियाँ है जो ईश्वर का ही रूप है। यह प्रकृति भी ईश्वर से उत्पन्न हुई है जो उस चैतन्य का ही घनीभूत रूपमात्र है। जड़ में भी चेतना व्याप्त है किन्तु वह तुरीयावस्था में है,सक्रिय नहीं है। आदम व ईव भी पुरुष और प्रकृति के प्रतीक है। आदम पुरुष है जिसने अपनी ही पसली से ईव को पैदा किया। मनु और शतरूपा भी इसी पुरुष और प्रकृति के प्रतीक है। मनु ने ही अपनी पीठ से शतरूपा को उत्पन्न किया। यही अद्वैत की मान्यता को पुष्ट करता है।
बिना योजना के कोई भी कार्य व्यवस्थित रूप से नहीं हो सकता। एक मकान बनाने में ही कितनी योजना बनानी पड़ती है। सर्वप्रथम मकान निर्माता के मन में उसे बनाने का संकल्प होता है की मुझे मकान बनाना है। इस संकल्प के साथ ही उसके मन में मकान का पूरा चित्र बन जाता है की वह किस प्रकार का होना चाहिए जिसमे सभी प्रकार की सुविधाएँ हो। उसकी कल्पना के आधार पर ही ड्राफ्टमैन उसका नक्शा तैयार करता है जो किसी कुशल इंजीनियर की देख-रेख में तैयार होता हैं। फिर इंजीनियर उसके अनुसार सामग्री जुटाता है व मिस्त्री उसकी देख-रेख करता है। कारीगर व मजदूर उसी के अनुसार उसका निर्माण करते हैं। इन सभी में कोई भी स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर सकता। सभी कुछ उस मालिक की योजनानुसार ही करना पड़ता है। यदि वे उसकी योजना के विपरीत जाकर कोई कार्य करते है तो वे दंड के भागी होते है। ठीक उसी प्रकार सृष्टि निर्माण की जैसी कल्पना ईश्वर के मन में होती है उसी के आधार पर इस सृष्टि की रचना होती है व हुई है। अन्य देवगण उसी योजना को क्रियान्वित करते है। वे इसमें किसी प्रकार का फेर बदल करने के अधिकारी नहीं है। इसलिए यह सृष्टि ईश्वर की सुसम्बद्ध एवं सुनियोजित योजना का ही परिणाम है। भौतिक जगत में उस ईश्वरीय-शक्ति से निःसृत विभिन्न भौतिक शक्तियाँ ही सृष्टि में भौतिक जगत की रचना करती हैं जो ईश्वर के संकल्प के अनुसार ही कार्य करती है क्योंकि वह उससे भिन्न नहीं है। तथा जीव जगत में उसकी चेतना शक्ति कार्य कर रही है जिससे सभी जीवों का विकास एक ही क्रम से सुव्यवस्थित ढंग से होता है। उस चेतन की योजना से विपरीत कुछ भी नहीं होता।
योजना निर्माण का कार्य कोई चेतना शक्ति ही कर सकती है। जड़ पदार्थ कोई योजना नहीं बना सकता। वह इस चेतन शक्ति का उपकरण मात्र बनता है जिसका वह उपयोग कर अपनी योजना को क्रियान्वित करता है। यह ईश्वरीय चेतना-शक्ति ही इस समस्त जड़ व जीव जगत की समस्त गतिविधियों का सञ्चालन व नियंत्रण करती है। प्रकृति में उसे जड़-शक्ति तथा जीव-जगत में उसी को देवगण कहा जाता है। ये विभिन्न देवगण उस चेतन-शक्ति के विभिन्न रूपमात्र हैं। मनुष्य की सभी प्रकार की क्रियाओं का एकमात्र कारण यह आत्म-चेतना ही है। अन्य सभी जड़ प्रकृति से निर्मित होने के कारण उस आत्म-शक्ति के उपकरण मात्र है।
इस सृष्टि में जो कुछ हो रहा है वह अनायास,आकस्मिक या अविचार पूर्ण नहीं है। वह ईश्वर की किसी योजनानुसार ही हो रहा है जिससे इतनी व्यवस्थित सृष्टि की रचना संभव हो सकी है। विज्ञान ने केवल भौतिक तत्वों की खोज की जिससे वह भौतिक सृष्टि की तो जानकारी प्राप्त कर सका किन्तु चेतन की खोज से वह अनभिज्ञ ही रहा जिससे वह जीव जगत की क्रियाओं को नहीं समझ सका। केवल जड़ तत्वों को मिलाने मात्र से जीव-जगत की रचना नहीं हो सकती जब तक की उसमे इस चेतन तत्व की विद्यमानता न हो। वनस्पति के बीजों में, पक्षियों के अंडों में,मनुष्य के शुक्र में जो चेतन तत्व होता है वह उसी प्रकार के जीव की रचना करता है जैसा उस जीव का संकल्प होता है। उसी की योजनानुसार वह आकृति का निर्माण करता है। विकास का कारण केवल वही चेतना-शक्ति है। भौतिक पदार्थों का विकास नहीं होता न कोई सम्भावना ही है। ईश्वर की यह चेतन शक्ति प्रकृति के माध्यम से ही कार्य करती है। बिना प्रकृति के इसका कोई उपयोग नहीं हो सकता। जड़ और चेतन का संयोग ही जीव सृष्टि का कारण है। यह चेतन ही बीज रूप है जो प्रकृति के गर्भ में स्थित रहकर उसकी क्रिया का कारण बनता है। यह जड़ और चेतन उस एक ही ईश्वर की दो शक्तियाँ है जो ईश्वर का ही रूप है। यह प्रकृति भी ईश्वर से उत्पन्न हुई है जो उस चैतन्य का ही घनीभूत रूपमात्र है। जड़ में भी चेतना व्याप्त है किन्तु वह तुरीयावस्था में है,सक्रिय नहीं है। आदम व ईव भी पुरुष और प्रकृति के प्रतीक है। आदम पुरुष है जिसने अपनी ही पसली से ईव को पैदा किया। मनु और शतरूपा भी इसी पुरुष और प्रकृति के प्रतीक है। मनु ने ही अपनी पीठ से शतरूपा को उत्पन्न किया। यही अद्वैत की मान्यता को पुष्ट करता है।
बिना योजना के कोई भी कार्य व्यवस्थित रूप से नहीं हो सकता। एक मकान बनाने में ही कितनी योजना बनानी पड़ती है। सर्वप्रथम मकान निर्माता के मन में उसे बनाने का संकल्प होता है की मुझे मकान बनाना है। इस संकल्प के साथ ही उसके मन में मकान का पूरा चित्र बन जाता है की वह किस प्रकार का होना चाहिए जिसमे सभी प्रकार की सुविधाएँ हो। उसकी कल्पना के आधार पर ही ड्राफ्टमैन उसका नक्शा तैयार करता है जो किसी कुशल इंजीनियर की देख-रेख में तैयार होता हैं। फिर इंजीनियर उसके अनुसार सामग्री जुटाता है व मिस्त्री उसकी देख-रेख करता है। कारीगर व मजदूर उसी के अनुसार उसका निर्माण करते हैं। इन सभी में कोई भी स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर सकता। सभी कुछ उस मालिक की योजनानुसार ही करना पड़ता है। यदि वे उसकी योजना के विपरीत जाकर कोई कार्य करते है तो वे दंड के भागी होते है। ठीक उसी प्रकार सृष्टि निर्माण की जैसी कल्पना ईश्वर के मन में होती है उसी के आधार पर इस सृष्टि की रचना होती है व हुई है। अन्य देवगण उसी योजना को क्रियान्वित करते है। वे इसमें किसी प्रकार का फेर बदल करने के अधिकारी नहीं है। इसलिए यह सृष्टि ईश्वर की सुसम्बद्ध एवं सुनियोजित योजना का ही परिणाम है। भौतिक जगत में उस ईश्वरीय-शक्ति से निःसृत विभिन्न भौतिक शक्तियाँ ही सृष्टि में भौतिक जगत की रचना करती हैं जो ईश्वर के संकल्प के अनुसार ही कार्य करती है क्योंकि वह उससे भिन्न नहीं है। तथा जीव जगत में उसकी चेतना शक्ति कार्य कर रही है जिससे सभी जीवों का विकास एक ही क्रम से सुव्यवस्थित ढंग से होता है। उस चेतन की योजना से विपरीत कुछ भी नहीं होता।
योजना निर्माण का कार्य कोई चेतना शक्ति ही कर सकती है। जड़ पदार्थ कोई योजना नहीं बना सकता। वह इस चेतन शक्ति का उपकरण मात्र बनता है जिसका वह उपयोग कर अपनी योजना को क्रियान्वित करता है। यह ईश्वरीय चेतना-शक्ति ही इस समस्त जड़ व जीव जगत की समस्त गतिविधियों का सञ्चालन व नियंत्रण करती है। प्रकृति में उसे जड़-शक्ति तथा जीव-जगत में उसी को देवगण कहा जाता है। ये विभिन्न देवगण उस चेतन-शक्ति के विभिन्न रूपमात्र हैं। मनुष्य की सभी प्रकार की क्रियाओं का एकमात्र कारण यह आत्म-चेतना ही है। अन्य सभी जड़ प्रकृति से निर्मित होने के कारण उस आत्म-शक्ति के उपकरण मात्र है।
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