ईश्वरीय नियम क्या है ? ईश्वर कोई नियम बनाता है क्या वह संचालनकर्ता है ?

मानसिक स्तर के व्यक्तियों ने ईश्वर को व्यक्ति स्वरुप मान कर उसे कही स्वर्ग के सिंहासन पर बिठा दिया तथा उसे न्यायाधीश जैसा दंड व पुरुस्कार देने वाला बता दिया। उसे अपनी-अपनी धारणा के अनुसार चित्रित किया किन्तु भारत का दर्शन मानसिकता से ऊपर का दर्शन है जिसमे प्रत्यक्ष अनुभूति ही उसका मुख्य आधार है। यह मानसिक  कल्पना से लिया गया निर्णय नहीं है बल्कि मन के पार की अवस्था में आया हुआ  ज्ञान है जिसे सर्वत्र स्वीकार किया गया है।
        भारत की मान्यता के अनुसार ईश्वर स्वयं कर्ता नहीं है। न वह कर्म कराता,न कर्मों में हस्तक्षेप ही करता है। वह एक निरपेक्ष सत्ता है जो सृष्टि में सभी कर्मों का कारण है,मूलकारण मात्र है। उसकी चेतन-शक्ति ही क्रिया करती है किन्तु उसकी क्रिया प्रकृति के माध्यम से ही होती है। यह सम्पूर्ण सृष्टि उस चेतन-शक्ति के विशिष्ट नियमों से चल रही है जिनमे जड़ और चेतन के भिन्न-भिन्न नियम है। यह भौतिक जगत जड़ प्रकृति के नियमों से चलता है जिनको जानकार विज्ञानं का विकास होता है जबकि चेतन के नियमों को जानकर जीव अपनी गतिविधियों को संचालित करता है। इन दोनों को जानकर ही मनुष्य इस जीवन में सुखी हो सकता है। परमात्मा नियंत्रण नहीं कर रहा है,न अपनी इच्छानुसार उसे चला रहा है। यदि वह इसे अपनी इच्छानुसार चलाता तो वह अपनी इच्छा में परिवर्तन भी कर सकता था किन्तु ऐसा होता नहीं। वह स्वयं कर्ता नहीं बल्कि कर्मों का कारण  मात्र है। कर्म तो प्रकृति के गुणों के अनुसार ही होते है। वह कर नहीं रहा है बल्कि उससे हो रहा है। मनुष्य द्वारा किये जाने वाले सभी कर्म,पाप,पुण्य,चोरी,हत्या,अनाचार,दुराचार,दान,सेवा आदि ,सभी ईश्वर नहीं कराता,न उसे बाध्य ही करता है,न रोकता ही है। उसकी स्वयं की मानसिकता ही उसका कारण है। इसलिए इसके लिए वह स्वयं जिम्मेदार है। लाओत्से भी कहते है की,''वह चलने की शक्ति देता है किन्तु इशारा नहीं करता। '' गीता में भी कहा गया है की ''कर्म में ही तेरा अधिकार है ,फल में नहीं। '' फल तो कर्म के अनुसार ही मिलता है। ईश्वर अपनी इच्छा से नहीं देता। ऐसा उसका नियम है। ईश्वर की कृपा भी उसके नियम के अनुसार ही होती है। अपात्र पर कृपा भी नहीं होती ,न सुपात्र उसकी कृपा से वंचित ही रहता है। उसके नियम के अनुसार चलने पर कृपा होगी ही तथा उसके विपरीत जाने पर अकृपा ही होगी। वह चैतन्य-शक्ति निरपेक्ष है। उसका किसी का भला-बुरा करने में कोई रूचि नहीं है। जिस प्रकार विद्युत,अग्नि,गुरुत्वाकर्षण आदि का सही उपयोग करने पर वे वरदान सिद्ध होती है। किन्तु दुरूपयोग करने पर वे प्राण हरण भी कर लेती है उसी प्रकार चेतना का नियम है। ईश्वर की कृपा ऐसी नहीं की वह चाहे तो करे और न चाहे तो न करे तथा बीच में ही रोक दे बल्कि उसकी कृपा तो हो ही रही है। यह सम्पूर्ण सृष्टि उसी की कृपा का प्रसाद है। वह स्वयं कृपा ही है जो उस चैतन्य का स्वाभाविक गुण है। मनुष्य यदि उसकी कृपा के अनुकूल है,योग्य है तो उसकी कृपा का प्रसाद अवश्य मिल जाता है। प्रतिकूल चलने पर अकृपा ही होगी जिसे कोई रोक नहीं सकता। प्रार्थना,पूजा,आराधना से वह अपना नियम बदल नहीं देता।
     ईश्वरीय योजना व उसके नियमों के विपरीत कार्य करने वाला ही जीवन में दुःख का भागी होता है तथा वही बार-बार जन्म लेकर अपने ही किये गए कर्मों का फल भोगता रहता है। जब उसे इन नियमों का ज्ञान हो जाता है तो वह इन सभी सांसारिक बंधनों से छूटकर मुक्ति का लाभ प्राप्त करता है। इसी से वह सुखी हो सकता है। मुक्ति का प्रयत्न भी स्वयं को ही करना पड़ेगा।
      परमात्मा किसी को भला व बुरा नहीं बनता। यदि वह उसे बुरा बनाता है तो मनुष्य उसका सुधार कैसे कर सकता है , भारत इसे कर्म का नियम मान कर कहता है की यह सब स्वयं के अच्छे -बुरे कर्मों का ही फल है जिसे वह भोगता है। इसलिए इसके लिए ईश्वर को उत्तरदायी न मानकर अपने कर्मों के सुधार की ओर ध्यान देना चाहिए। अच्छा व बुरा भी सापेक्ष है। बुरे से ही अच्छे का विकास होता है। यदि बुरा न हो तो अच्छाई का महत्व ही नहीं रहता। यदि सभी अच्छे हो जाये तो फिर करने को क्या शेष रह जाता है। जीवन संघर्ष ही समाप्त हो जाता है। फिर विकास का कोई प्रयोजन ही नहीं रहता। यदि सभी संपन्न बन जाये तो सारी  भाग दौड़ ही समाप्त हो जाएगी। यह सारा जीवन ही नीरस बन जाये। आत्मा-चेतना के विकास की सारी सम्भावनाएं ही समाप्त हो जाये।जब तक इस मन का भौतिक जगत से संघर्ष चलता रहता है तभी मन और बुद्धि का विकास होता जाता है ,चिंतन को इसी से प्रेरणा मिलती है जिससे उसका उत्तरोत्तर विकास होता जाता है अन्यथा वह आदिम अवस्था से ऊपर उठ ही नहीं सकता।यह संसार विपरीत के बीच सामंजस्य है। विपरीत के बिना सृष्टि का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। संसार में जो भी द्वन्द दिखाई देता है वे भी  वास्तविक नहीं है बल्कि मन की कल्पना मात्र है। अस्तित्व में द्वन्द है ही नहीं। वह सभी में सामान रूप से व्यवहार करता है किन्तु मनुष्य अपने अहंकार के कारण अज्ञानावस्था में उस ईश्वर के नियमों को न समझ कर अपनी वासना ,स्वार्थवृत्ति के कारण इस सृष्टि व ईश्वर से कई प्रकार की अपेक्षाएं करने लगता है। इसी से वह आशा,तृष्णा,लोभ,मोह आदि के वशीभूत होकर अच्छे व बुरे में भेद करता है। इसी से घृणा,द्वेष,वैमनष्य,हत्या,हिंसा करता है। फिर इन बुराइयों को दूर करने के उपाय खोजता है। इन बुराइयों को दूर करने के लिए ये धर्म गुरु अपनी-अपनी दुकाने खोल कर बैठ जाते है  की हम तुम्हारा उद्धार कर देंगे। हमारा शिष्यत्व स्वीकार कर लो। इस प्रकार यह सारा संसार एक इंद्रजाल बन जाता है जिससे निकलने का मार्ग ही नहीं मिलता। सारा जीवन इसी भटकाव में समाप्त हो जाता हैं।
    जब ईश्वर एक निरपेक्ष शक्ति है जिसकी मनुष्य को भला बुरा करने में कोई रुचि नहीं है तथा वही चैतन्य स्वरूप है,यह जगत व मनुष्य भी उसी का रूप है तो फिर मनुष्य में  इन बुराइयों का क्या कारण है ?यह प्रश्न उपस्थित होता है। मनुष्य वास्तव में उस ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना है किन्तु वह अज्ञान वश अपने को उससे भिन्न मानकर स्वतंत्र रूप से व्यव्हार करने लगता है जिससे यह अज्ञान ही उसके सभी अवगुणों का कारण बनता है। इस अज्ञान के कारण ही उसके मार्ग में स्वरत्वृत्ति का जन्म होता है जो तुच्छ वासना है। वासना का कारण  अहंकार है जिससे वह अपने को ईश्वर से भिन्न अस्तित्व वाला मानकर उसके नियमों का उल्लंघन करता रहता है उपनिषदों में इसी को 'अविद्या' कहा गया है। पतंजलि ने अपने योगदर्शन (साधन-३) में अविद्या,अस्मिता,राग,द्वेष और अमिनिवेश ये पाँच क्लेश बताये है तथा आगे (सूत्र ४ ) इन चारो क्लेशों की उत्पत्ति भूमि 'अविद्या' को ही माना है।  अविद्या की परिभाषा देते हुए इसी (सूत्र ५ ) में कहा गया है की "अनित्य,अपवित्र,दुःख और अनात्मा में नित्य,पवित्र,सुख और आत्मभाव की प्रतीति 'अविद्या'है। " मन के रहते बुराई को हटाना असम्भव है। मन के पार है चेतना (आत्मा) जिसकी शक्ति से मन सक्रिय होता है किन्तु वह उसे विस्मृत कर अपनी स्वार्थवृत्ति के पोषण में लग जाता है जिससे वह दुःख भोगता है। इसलिए आत्म-ज्ञान से ही बुराई को दूर किया जा सकता है। हजारों वर्षो से इस पर प्रयोग किये जा रहे है किन्तु परिणाम कुछ नहीं निकला। मनुष्य आज भी दुखी,परेशान,चिन्तित व तनावग्रस्त है। बुद्ध और महावीर की शिक्षा अनुपयुक्त ही सिद्ध हुई है। जीजस और मोहम्मद के उपदेश शांति नहीं ला सके।
       सामाजिक प्रतिबन्धों,नैतिक उपदेशों आदि से बुराई को नहीं हटाया जा सकता। नैतिकता का आवरण मनुष्य को झूठा व पाखण्डी बना देता है। वह समाज में दिखाई कुछ और देता है व होता कुछ और है। वह अपना झूठा मुखौटा पहनकर समाज में आता है। जिससे वह सभ्य,शिष्ट व धार्मिक दिखाई देता है किन्तु स्वयं वैसा होता नहीं है। वह छिपकर बुराई करने लगता है। अवसर मिलने पर वह चूकता भी नहीं है। बुराई का बीज मन में होता है। जो सामाजिक वातावरण से प्रकट होता है ,उसी से उसको खाद पानी मिलता है। जिससे वह फलता-फूलता है अन्यथा वह मन की गहराई में सुप्त ही पड़ा रहता है जो अवसर पाकर प्रकट हो जाता है,नष्ट नहीं होता।
        बुराई को मन में ही दबा देना उसे मिटाना नहीं है। मन का परिष्कार उपदेशों से,आदेशों से.दण्ड व पुरस्कार से,धर्म ग्रन्थ के पढ़ने से,धार्मिक प्रवचन सुनने मात्र से नहीं हो सकता। आत्म -चेतना के ज्ञान से ही हो सकता। यह आत्म -चेतना क्या है ?ईश्वरीय योजना से इसका क्या सम्बन्ध है ?आदि का ज्ञान होने पर ही बुराई को मिटाया जा सकता है। सृष्टि के विधान की जानकारी के आभाव में ही मनुष्य बुराई में लिप्त होता है। इसलिए उस ईश्वरीय विधान,उसके नियम व उसकी कार्य प्रणाली का ज्ञान ही मनुष्य को सुखी बना सकता है। 

No comments:

Post a Comment