मनुष्य का अनुभव शरीर,मन व बुद्धि तक ही सीमित है जिसकी सहायता से वह संसार के सभी प्रकार के शारीरिक,मानसिक एवं बौद्धिक कार्यों का संपादन कर अपना जीवनयापन कर लेता है किन्तु ये तीनों जिस अज्ञात शक्ति से संचालित हो रहे हैं उससे वह अनभिज्ञ ही रहता है। यह अज्ञात शक्ति स्वयं की आत्मा ही है एक चेतन-शक्ति है जो मनुष्य की सभी प्रकार की क्रियाओं का कारण है। इस चेतन-शक्ति को जान लेना, इसका ज्ञान हो जाना, इसकी अनुभूति जाना ही आत्म-ज्ञान (सेल्फ रियलाइजेशन ) है। आत्म-ज्ञान अध्यात्म का विषय है जो भौतिक विज्ञान से सर्वथा भिन्न प्रकार का है। भौतिक विज्ञान की भाँति पर प्रयोग व परीक्षण नहीं किये जा सकते किन्तु इसकी अनुभूति की जा सकती है। इस अनुभूति को ही आत्म-दर्शन, आत्म-ज्ञान, आत्मानुभूति, आत्म-बोध कहा जाता है।
आत्मा की अनुभूति केवल समाधि की अवस्था में ही होती है,अन्य कोई उपाय नहीं है। तर्क, प्रमाण, विचार, चिन्तन आदि से इसकी सत्ता को प्रमाणित तो किया जा सकता है किन्तु जब तक इसकी प्रत्यक्ष अनुभूति नहीं हो जाती है तब तक मनुष्य में भ्रम, संदेह आदि बना रहता है। शास्त्रों के पढ़ लेने से, सत्संग कर लेने से तथा ज्ञानियों के कथन से भी यह भ्रम दूर नहीं होता। इस प्रत्यक्षानुभूति से ही मनुष्य की शरीर, मन, बुद्धि तथा संसार के प्रति जो उसकी मिथ्या आसक्ति व मोह है तथा इन्ही को सत्य मानने का जो भ्रम है वह दूर हो जाता है जिससे वह अपने वास्तविक स्वरूप को जानकार परमानन्द की अनुभूति करता है जो उसकी मुक्ति का कारण बनता है।
आत्मा की अनुभूति केवल समाधि की अवस्था में ही होती है,अन्य कोई उपाय नहीं है। तर्क, प्रमाण, विचार, चिन्तन आदि से इसकी सत्ता को प्रमाणित तो किया जा सकता है किन्तु जब तक इसकी प्रत्यक्ष अनुभूति नहीं हो जाती है तब तक मनुष्य में भ्रम, संदेह आदि बना रहता है। शास्त्रों के पढ़ लेने से, सत्संग कर लेने से तथा ज्ञानियों के कथन से भी यह भ्रम दूर नहीं होता। इस प्रत्यक्षानुभूति से ही मनुष्य की शरीर, मन, बुद्धि तथा संसार के प्रति जो उसकी मिथ्या आसक्ति व मोह है तथा इन्ही को सत्य मानने का जो भ्रम है वह दूर हो जाता है जिससे वह अपने वास्तविक स्वरूप को जानकार परमानन्द की अनुभूति करता है जो उसकी मुक्ति का कारण बनता है।
आत्मानुभूति ज्ञान का विषय है। इसी को 'योग' कहा गया है। इस योग की कई विधियाँ है जिनमे कर्मयोग, भक्तियोग, क्रियायोग, सांख्य, तंत्र साधना आदि है। कुछ तो केवल ईश्वर की कृपा की ही इच्छा करते हैं, कुछ केवल उसका प्रेम प्राप्त करना चाहते हैं, कुछ ईश्वर से अपनी विभिन्न कामनाओं की पूर्ति चाहते है, कुछ ईश्वर के दर्शन मात्र करना चाहते है, कुछ मुक्ति की कामना करते है तथा कुछ स्वर्ग अथवा बैकुण्ठ में अपना निवास चाहते है। सभी के पीछे मनुष्य की मानसिकता ही है, किन्तु ज्ञानी उसकी अनुभूति करना चाहता है कि वह आत्म-तत्व क्या हैं ? उसकी जीवन में क्या भूमिका है ? ईश्वर व आत्मा का क्या सम्बन्ध है ? आदि। वह एक वैज्ञानिक की भाँति उसके रहस्यों को जानना चाहता है, उसे प्रत्यक्ष करना चाहता है। वह अध्यात्म-विज्ञानी ही हैं। यही योग- विद्या है जिसके लिए वह समाधि का प्रयोग करता है जिसका आरम्भ ध्यान से किया जाता है। साधना में केवल शरीर, मन, व बुद्धि का ही उपयोग किया जाता है। अन्य किसी उपकरण की आवश्यकता नहीं रहती। आत्मज्ञान केवल ध्यान और समाधि द्वारा ही होता है। अन्य सभी विधियाँ इसमें सहायक हो सकती हैं किन्तु वे आत्मानुभूति नहीं करा सकतीं।
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