धर्म का लक्ष्य क्या है? धार्मिक विकृतियों का कारण क्या है?

                                         ( पूज्य श्री अड़गड़ानंद जी महराज )   
   
 प्रश्न  :- धर्म का लक्ष्य क्या है? 

 उत्तर :- धर्म का लक्ष्य है लोक में समृद्धि और परमश्रेय की प्राप्ति। जीवन जन्म और मृत्यु के बीच एक पड़ाव है। मृत्यु के पश्चात् कोई पुन: लौटकर अपना घर या अपनी व्यवस्थाओं को नहीं देख पाता। गीता कहती है- स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्। (१८/६२) तुम उस निवास को पा जाओगे जो अजर-अमर है। तुम रहोगे, तुम्हारा जीवन रहेगा, तुम्हारा धाम हमेशा हमेशा के लिए रहेगा। गीता सदा रहनेवाली समृद्धि, शान्ति और जिस परमात्मा के आप अंश हैं उस अंशी परमपिता परमात्मा का दर्शन, स्पर्श और उसमें विलय दिलाती है। यह विडम्बना ही है कि हम उससे माँगते हैं जिसके पास नहीं है। जिसके पास है ही नहीं, वह कहाँ से दे देगा? हम किसी फलदार वृक्ष से मौसम में फल माँगेंगे तो वह अवश्य देगा; किन्तु हम उससे मुक्ति या भक्ति माँगें तो वह कहाँ से दे देगा?  
प्रश्न ६ :- धार्मिक विकृतियों का कारण क्या है? 

 उत्तर :- इन विकृतियों का कारण केवल शास्त्र का विस्मृत हो जाना, उसकी अवहेलना और उस पर अनर्गल प्रतिबन्धों का लगना है। गीता धर्मशास्त्र के रूप में प्रतिष्ठित होते ही स्पष्ट हो जायेगा कि मानव एक परमात्मा की सन्तान हैं। परमधर्म परमात्मा ही एकमात्र शाश्वत सत्य है, वही नित्यतत्त्व है। उसे धारण करना धर्म है। उसे धारण करने की विधि, सम्पूर्ण साधना-पद्धति गीता है। गीता मनुष्य-मनुष्य में ऊँच-नीच की दरार नहीं डालती। गीतोक्त धर्म मनुष्यों के हृदय में जो दु:खों का कारण है उसका निवारण तथा सहज सुख की प्राप्ति का साधन है। गीता का पहला ही श्लोक है-

 धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:। मामकाः पाण्डवाश्यैव किमकुर्वत संजय। १/१ ‘धर्म एक क्षेत्र है तथा कुरु' एक क्षेत्र है। वस्तुत: वह क्षेत्र कहाँ है? वह युद्ध कहा हुआ ? गीताकार स्वयं स्पष्ट करते है - 
            इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते। (१३/९ ) अर्जुन! यह शरीर ही एक क्षेत्र है। इसमें बोया हुआ भला-बुरा बीज संस्काररूप में उगता है। शुभ या अशुभ अनन्त योनियों का कारण भी यही है। जो इसका पार पा लेता है वह क्षेत्रज्ञ है। वह इस क्षेत्र में फँसा नहीं बल्कि इसका रक्षक है, इससे उद्धार करानेवाला क्षेत्रज्ञ है। अर्जुन! सभी शरीरों में मैं क्षेत्रज्ञ हूँ और जो इसे जान लेता है वह भी क्षेत्रज्ञ है। स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण एक महायोगेश्वर पूर्ण सद्गुरु हैं।  
         शरीर एक क्षेत्र है। इसमें लड़नेवाली प्रवृत्तियाँ दो हैं- धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र। एक परमधर्म परमात्मा जो शाश्वत है, अनादि है, सत्य है उसे धारण करने की विधि और दूसरा है कुरु अर्थात् करो, करते ही रहो, सदा प्रवृत्त रहो, चलते रहो, पहुँचोगे कहीं नहीं, चाल कभी नहीं रुकेगी। इसका नाम है प्रवृत्ति मार्ग। जिसमें अज्ञानरूपी धृतराष्ट्र है, गो अर्थात् इन्द्रियों के आधारवाली दृष्टि (गांधारी) से जिसका गठन होता है। अज्ञान से प्रेरित मोहरूपी दुर्योधन, दुर्बुद्धिरूपी दु:शासन, विजातीय कर्मरूपी कर्ण, भ्रमरूपी भीष्म, द्वैत का आचरणरूपी द्रोणाचार्य, संशयरूपी शकुनि- इस प्रकार आसुरी सम्पद् अनन्त हैं फिर भी इन्हें ग्यारह अक्षौहिणी कहा गया। दस इन्द्रियाँ और एक मन- मनसहित इन्द्रियमयी दृष्टि से जिसका गठन है, वह है कुरुक्षेत्र, प्रवृत्ति मार्ग, आसुरी सम्पद्, विजातीय सम्पद्, जिन पर हमें विजय पाना है। 
        इसी अंत:करण में एक दूसरी प्रवृत्ति भी है धर्मक्षेत्र। परम शाश्वत, सनातन, अव्यक्त, व्याप्त, काल से अतीत एकमात्र परमतत्व परमात्मा है। उसे धारण करना धर्म है। धर्मक्षेत्र में कर्तव्यरूपी कुन्ती, पुण्यरूपी पाण्डु हैं। पुण्य की जागृति होने से पूर्व मनुष्य कर्तव्य समझकर जो कुछ करता है, अपनी समझ से वह ठीक ही करता है लेकिन वह हो जाता है विजातीय सम्पद्। वह अंधकार में चलाया हुआ तीर होता है। पाण्डु से संसर्ग होने से पूर्व कुंती ने जो कुछ अर्जित किया, वह था कर्ण। पाण्डवों का सबसे दुर्धर्ष, निरन्तर का वैरी कोई था तो कर्ण। जबकि था सगा भाई। 
       अनजाने में धर्म समझकर कुछ भी कर बैठना धर्म नहीं हो जाता। भगवान श्री कृष्ण कहते है कि ,अर्जुन ! अविवेकियों की बुद्धि अनन्त शाखाओं  वाली होती है इसलिए धर्म के नाम पर वे अनन्त क्रियाओं की रचना कर लेते हैं। दिखावटी शोभायुक्त वाणी में उसे व्यक्त भी करते हैं कि स्वर्ग ही सर्वोपरि लक्ष्य है। उनके वाणी की छाप जिन-जिन के चित्त पर पड़ जाती है उनकी भी बुद्धि नष्ट हो जाती है, न कि वे कुछ पाते हैं। 
        पुरुष श्रद्धामय है। कहीं न कहीं उसकी श्रद्धा होगी ही, किन्तु कामनाओं से ग्रसित अविवेकपूर्ण बुद्धि अनन्त क्रियाओं की संरचना कर लेती है। इसीलिए पुण्य जागृत होने से पूर्व मनुष्य कर्तव्य समझकर जो कुछ भी करता है अपनी समझ से कर्म ही करता है किन्तु है विजातीय कर्म, आसुरी सम्पद् का एक अंग। जहाँ पुण्यरूपी पाण्डु से संसर्ग हुआ, धर्मरूपी युधिष्ठिर का आविर्भाव हो जाता है। युधिष्ठिर को अजातशत्रु कहा जाता है अर्थात् उनका कोई शत्रु जन्मा ही नहीं, जबकि समस्त शत्रु युधिष्ठिर के ही थे। राज्याभिषेक युधिष्ठिर का होना था किन्तु युधिष्ठिर को अजातशत्रु कहा जाता था, क्योंकि ईश्वर-पथ में आरम्भ का नाश नहीं होता। भजन जागृत हो गया तो भगवान के संरक्षण में चलता है। प्रकृति में इतनी शक्ति नहीं है कि भगवान के हाथ से आपको छीन ले और अधोगति में फेंक दे। भगवान होने ही नहीं देंगे -
            करऊँ सदा तिन्ह के रखवारी। जिमि बालक राखड़ महतारी। – रामचरित मानस ( ३/४२/३) इस प्रकार धर्मरूपी युधिष्ठिर (जो शाश्वत सत्य तत्व है उसे धारण करने की जागृति), भावरूपी भीम, भावे विद्यते देवा।— भाव में वह क्षमता है कि परमदेव परमात्मा विदित हो जाता है, अनुरागरूपी अर्जुन- इष्ट के अनुरूप लगाव अनुराग है। सृष्टि में लगाव राग कहलाता है, इष्ट में लगाव अनुराग है। 'मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा। (मानस, ३/१५/६) यह अनुरागी के लक्षण होते हैं- इस प्रकार अनुरागरूपी अर्जुन, (कायारूपी काशी में ही वह साम्राज्य है।), रथी के रूप में भगवान अर्थात् अन्तरात्मा से जागृत इष्ट सद्गुरु- यह धर्मक्षेत्र है। इनकी संख्या सात अक्षौहिणी कही गयी। ईश्वर-पथ की क्रमोन्नत सात भूमिकाएँ हैं। इन भूमिकाओं की दृष्टि से ,सत्य एक परमात्ममयी दृष्टि से जिसका गठन है वह धर्मक्षेत्र है। ये वृत्तियाँ भी अनन्त ही हैं। वृत्तियों का प्रवाह ही तो है। जब धर्म की वृत्ति प्रबल होती है तो यह शरीर ही धर्मक्षेत्र बन जाता है।  
       कुरुक्षेत्र और धर्मक्षेत्र का संघर्ष तब तक चलता है जब तक विजातीय प्रवृत्ति का, आसुरी सम्पद् का अंतिम सदस्य दुर्योधन शान्त नहीं हो जाता। जब दुर्योधन समाप्त हो गया, कुल में कोई नहीं बचा तो अंधा धृतराष्ट्र कुछ देर अवश्य छटपटाया, अंत में उसने भी संन्यास ले लिया, हरि के द्वार पर पहुँचकर चिन्तन करने लगा। इस प्रकार गीता अंत:करण की दो प्रवृत्तियों का संघर्ष है।  
        हर मनुष्य या तो प्रकृति-प्रधान है या धर्म-प्रधान है। अज्ञान में भी, अदृश्य रूप से ही सही, किसी न किसी रूप में अपने से उच्चतर सत्ता की शरणस्थली वह अवश्य ढूंढ़ता है। मनुष्य अपूर्ण है, इसे पूर्णत्व प्रदान करना, सदा रहनेवाला जीवन और शान्ति प्रदान करना, अभय पद देना- यही गीता का क्रियात्मक साधन है। साधना उन्नत होने पर भगवान कोई कल्पना नहीं रह जाता। आगे-पीछे, सोते-जागते भगवान का वरदहस्त मिलने लगता है। जहाँ हुआ, फिर आपको कोई भरमा नहीं सकता। यह प्रत्यक्ष दर्शन है, एक जागृति है और यह जागृति गीता के माध्यम से है। यह आपको अपने विशुद्ध स्वरूप की प्राप्ति कराती है। जन्म-मृत्यु के चक़र से मुक्ति दिलाकर यह आपको लोक में हर प्रकार की समृद्धि और अभयपद में स्थिति दिलाती है। 

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