जिस प्रकार धुएं को देखकर अग्नि का अनुमान लगाया जाता है की अग्नि के बिना धुँआ नहीं हो सकता ,लड़के को देखकर पिता का अनुमान लगाया जाता है कि इसका कोई न कोई पिता अवश्य होना चाहिए क्योकि पिता के बिना पुत्र हो ही नहीं सकता। सृष्टि का यह नियम है कि कोई भी कार्य होता है तो उसका कोई न कोई कारण तत्व अवश्य होना चाहिए। बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता यह अनुमान भी प्रमाण है। घड़े का कारण तत्व मिट्टी है ,आभूषणों का कारण तत्व स्वर्ण है आदि इसी नियम के अनुसार जीव और जगत को देखकर मनुष्य ने इनके कारण तत्व की खोज की और उसने अनुमान लगाया की इन दोनों का कारण तत्व अवश्य होना चाहिए। जिससे इन दोनों का आविर्भाव हुआ है। इसी की खोज ने आध्यात्म विद्या को जन्म दिया किन्तु इसकी खोज में मनुष्य ने अपने मन व बुद्धि का ही सर्वाधिक उपयोग किया।जिसकी जितनी बौद्धिक व मानसिक क्षमता थी उतनी ही वह ईश्वर की व्याख्या कर सका सत्य तक पहुंचने की चेष्टा हर वर्ग ने अपने-अपने धर्मों में अपनी-अपनी पूर्व निर्धारित मान्यताओं के अनुसार की किन्तु वे पूर्ण सत्य को नहीं जान पाए। इन्होने अपनी-अपनी मानसिकता उस पर थोप दी जिससे एक ही ईश्वर के विभिन्न रूप सामने आये। यहूदियो का ईश्वर ,ईसाईयों का ईश्वर ,मुसलमानो का ईश्वर ,बुद्ध व जैनियों का ईश्वर भिन्न -भिन्न हो गए। ये सब भिन्न-भिन्न मानसिकता की ही उपज है। ईश्वर के प्रति ये सभी मान्यताएँ एकांगी है जो मन की ही उपज है। जिसका जैसा मन होता है वह उसी प्रकार की धारणा बना लेता है। यहूदियों का ईश्वर भयंकर व क्रोधी है। वह बदला लेता है ,वह विकराल है,कठोर है,उसकी आज्ञा न मानने पर दण्ड देता है। जीजस ने ईश्वर को प्रेम कहा है। जैनियों ने ईश्वर की सत्ता को ही इंकार किया व आत्मा को ही परमात्मा माना। बौद्धों ने इसे शून्य कहा।
यदि इस सृष्टि का कोई ईश्वर है तो वह एक ही हो सकता है व उसका स्वरुप व कार्य भी एक ही प्रकार के होने चाहिए किन्तु भिन्न -भिन्न ईश्वरों की मान्यता ही यह सिद्ध करती है की किसी ने उसे जाना नहीं वरना उसके इतने विभिन्न रूप नहीं बनते। वेदांत का ईश्वर परम व कृपालु व दयालु है। आर्यसमाजियों ,शैवों आदि की भी अपनी भिन्न-भिन्न मान्यताएं है अन्यथा एक ही शक्ति की इतनी व्याख्याएँ कैसे हो सकती है ? ये सब उसके अंश की व्याख्या है समग्र की व्याख्या करने में मन समर्थ नहीं है। अंश को ही पूर्ण मान लेना खतरनाक सिद्ध हुआ है।
भारत में विभिन्न ज्ञानियों ,भक्तों ,संतों ,कर्मियों ने ईश्वर के विषय में विभिन्न मान्यताएँ बनाई। जीव व जगत के सन्दर्भ में इसे 'सर्वशक्तिमान 'कहा है ,सृष्टि में विद्यमान रहने से इसे 'सृष्टिकर्ता 'कहा ,अपने में विलीन करने के कारण इसे 'प्रलयकर्ता 'कहा ,नित्य विद्यमान रहने के कारण इसे 'सर्वज्ञ 'कहा, जीवात्मा के सन्दर्भ में इसे 'कर्मफल दाता 'कहा तथा पापों का दण्ड देने वाला कहा ,भक्तों ने इसे 'परम सुन्दर 'कहा ,पापी जनो ने इसे 'दयामय ' 'कृपालु 'व कृपासिन्धु 'कहा। ईश्वर के ये सभी नाम ,गुण व विशेषण जीव और जगत के सन्दर्भ से ही है। सम्यक दृष्टि के आभाव में ही ये नाना भेद उपस्थित होते है। यह भी मनुष्य की ही कल्पना है की ईश्वर ने इस जगत की रचना मनुष्य के लिए ही की है जो मनुष्य के अहंकार की ही घोषणा है। यह उसका निम्न मानसिक स्तर है। उच्च स्तर पर आकर जीव अनुभव करता है की वह ईश्वर इस जीव व जगत दोनों का अंतर्यामी है। वह सब आत्माओं की आत्मा 'परम आत्मा' है। निम्न स्तर पर जीव का ईश्वर से पार्थक्य बना रहता है जिससे वह उसकी पूजा ,आराधना ,सेवा ,प्रार्थना करता है किन्तु उच्च स्तर पर जब उसकी कोई वासना नहीं होती तो वह उसके ज्ञान व प्रेम में मिलना चाहता है। वह उसे 'सच्चिदानन्द 'स्वरुप मानता है। फिर वह सर्वत्र भगवान का ही अनुभव करता है। ईश्वर से भिन्न वह किसी का भी अस्तित्व नहीं मानता। फिर द्रष्टा ,दृश्य व दर्शन ,ज्ञाता ,ज्ञान व ज्ञेय का भेद मिट जाता है। इसीलिये जो परम ज्ञानी है ,जिन्होंने इस परम तत्त्व की अनुभूति कर ली है वे ईश्वर के लिए किसी विशेषण का प्रयोग नहीं करते। वे मानते है की वह स्वयं सत्तावान है। स्वयं प्रकाश है ,नित्य परिपूर्ण है व परमानन्द स्वरुप है
यदि इस सृष्टि का कोई ईश्वर है तो वह एक ही हो सकता है व उसका स्वरुप व कार्य भी एक ही प्रकार के होने चाहिए किन्तु भिन्न -भिन्न ईश्वरों की मान्यता ही यह सिद्ध करती है की किसी ने उसे जाना नहीं वरना उसके इतने विभिन्न रूप नहीं बनते। वेदांत का ईश्वर परम व कृपालु व दयालु है। आर्यसमाजियों ,शैवों आदि की भी अपनी भिन्न-भिन्न मान्यताएं है अन्यथा एक ही शक्ति की इतनी व्याख्याएँ कैसे हो सकती है ? ये सब उसके अंश की व्याख्या है समग्र की व्याख्या करने में मन समर्थ नहीं है। अंश को ही पूर्ण मान लेना खतरनाक सिद्ध हुआ है।
भारत में विभिन्न ज्ञानियों ,भक्तों ,संतों ,कर्मियों ने ईश्वर के विषय में विभिन्न मान्यताएँ बनाई। जीव व जगत के सन्दर्भ में इसे 'सर्वशक्तिमान 'कहा है ,सृष्टि में विद्यमान रहने से इसे 'सृष्टिकर्ता 'कहा ,अपने में विलीन करने के कारण इसे 'प्रलयकर्ता 'कहा ,नित्य विद्यमान रहने के कारण इसे 'सर्वज्ञ 'कहा, जीवात्मा के सन्दर्भ में इसे 'कर्मफल दाता 'कहा तथा पापों का दण्ड देने वाला कहा ,भक्तों ने इसे 'परम सुन्दर 'कहा ,पापी जनो ने इसे 'दयामय ' 'कृपालु 'व कृपासिन्धु 'कहा। ईश्वर के ये सभी नाम ,गुण व विशेषण जीव और जगत के सन्दर्भ से ही है। सम्यक दृष्टि के आभाव में ही ये नाना भेद उपस्थित होते है। यह भी मनुष्य की ही कल्पना है की ईश्वर ने इस जगत की रचना मनुष्य के लिए ही की है जो मनुष्य के अहंकार की ही घोषणा है। यह उसका निम्न मानसिक स्तर है। उच्च स्तर पर आकर जीव अनुभव करता है की वह ईश्वर इस जीव व जगत दोनों का अंतर्यामी है। वह सब आत्माओं की आत्मा 'परम आत्मा' है। निम्न स्तर पर जीव का ईश्वर से पार्थक्य बना रहता है जिससे वह उसकी पूजा ,आराधना ,सेवा ,प्रार्थना करता है किन्तु उच्च स्तर पर जब उसकी कोई वासना नहीं होती तो वह उसके ज्ञान व प्रेम में मिलना चाहता है। वह उसे 'सच्चिदानन्द 'स्वरुप मानता है। फिर वह सर्वत्र भगवान का ही अनुभव करता है। ईश्वर से भिन्न वह किसी का भी अस्तित्व नहीं मानता। फिर द्रष्टा ,दृश्य व दर्शन ,ज्ञाता ,ज्ञान व ज्ञेय का भेद मिट जाता है। इसीलिये जो परम ज्ञानी है ,जिन्होंने इस परम तत्त्व की अनुभूति कर ली है वे ईश्वर के लिए किसी विशेषण का प्रयोग नहीं करते। वे मानते है की वह स्वयं सत्तावान है। स्वयं प्रकाश है ,नित्य परिपूर्ण है व परमानन्द स्वरुप है
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