यह जीव व जगत स्थूल है जो स्थूल ज्ञानेन्द्रियों का ही विषय है। यह स्थूल सृष्टि किसी सूक्ष्म तत्व की ही अभिव्यक्ति है जिसे ये स्थूल इन्द्रियाँ न देख सकती है न इसे जान ही सकती है। इसके लिए सूक्ष्म इन्द्रियों का ही प्रयोग करना पड़ेगा। सूक्ष्म इन्द्रियों से इस सूक्ष्म जगत का ज्ञान होता है जबकि इसके कारणस्वरुप का ज्ञान अन्तः कारण से होता है। जिन्होंने सूक्ष्म इन्द्रियों से देखा वे इस सृष्टि के सूक्ष्म स्वरुप की ही व्याख्या दे सके किन्तु वे इसके कारण तत्व को नहीं जान सके।
परमात्मा इतना आसान नहीं की वह मनुष्य की छोटी सी बुद्धि की पकड़ में आ जाए। उसे समझने के लिए अपनी बुद्धि,समझ,ज्ञान,अहं सबको छोड़ना पड़ेगा। इसे वे ही समझ सकते है जो अपनी समझ का आग्रह छोड़ देते है। परमात्मा को सृष्टा कहना भी ठीक नहीं है। वह सृजन की ऊर्जा है जिससे सृजन हो रहा है। सृजन की प्रक्रिया मन के संकल्प व उसकी योजनानुसार होती है इसलिए हिन्दुओ ने ब्रम्हा को सृष्टिकर्ता कहा जो समष्टिगत मन ही है। ईश्वर को कर्ता नहीं माना है। वह स्वयं कर्म नहीं करता है बल्कि कर्मों का कारण मात्र है जिसकी शक्ति से ही कर्म होते है। परमात्मा एक जीवनी शक्ति है एक जीवन धारा है जो सभी में बह रही है। कोई भी पदार्थ व जीव ऐसा नहीं जिसमे वह धारा न बह रही हो। यही अद्वैत का सार है।
इस जड़-चेतनात्मक जगत में ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करने के निम्न आधार है। इस विश्व जगत में सभी भेद व विषमताओं के बीच एक साम्य श्रृंखला एवं सुसामन्जस्य दिखाई देता है। विश्व के प्रत्येक व्यापार में व विभाग में एक अखण्डनीय नियम का साम्राज्य है। यह सृष्टि कोई भानुमति का कुनबा नहीं जो कही की ईट व कहीं का रोड़ा लेकर बनाई गई हो बल्कि इसका विकास एक सुनियोजित,सुदृढ़ एवं क्रमबद्ध ढंग से हुआ है इसलिए इसे किसी कुशल कलाकार कुशल इंजीनियर एवं कुशल कारीगर की ही रचना स्वीकार करना पड़ेगा। इसी से ईश्वर की सत्ता प्रमाणित होती है।बिना किसी पूर्व योजना के इतनी व्यवस्थित रचना संभव नहीं है और यह योजना किसी चेतन तत्व का ही कार्य हो सकता है। जड़ प्रकृति स्वयं कोई योजना नहीं बना सकती। प्रत्येक पदार्थ व जीव की गति,उत्पत्ति,स्थिति,और परिवर्तन के भीतर जो निगूढ़ उद्देश्य प्रतिभास होता है इसका कारण उस अद्वतीय महासत्ता को स्वीकार किये बिना निर्देश करना संम्भव नहीं है। वह परमात्मा ही इस जीव व जगत की सत्ता है जिसकी इच्छा द्वारा ही सभी व्यापार नियंत्रित होते है। इसलिए यह स्वीकार करना पड़ेगा की इस जीव व जगत से परे कोई ऐसी चैतन्य शक्ति है जिससे इसका विकास हुआ है तथा वही इस पर नियंत्रण कर रही है। जड़ पदार्थ कभी चेतन पर नियंत्रण नहीं कर सकता अतः चेतन की सत्ता ही सर्वोपरि सिद्ध होती है।
परमात्मा इतना आसान नहीं की वह मनुष्य की छोटी सी बुद्धि की पकड़ में आ जाए। उसे समझने के लिए अपनी बुद्धि,समझ,ज्ञान,अहं सबको छोड़ना पड़ेगा। इसे वे ही समझ सकते है जो अपनी समझ का आग्रह छोड़ देते है। परमात्मा को सृष्टा कहना भी ठीक नहीं है। वह सृजन की ऊर्जा है जिससे सृजन हो रहा है। सृजन की प्रक्रिया मन के संकल्प व उसकी योजनानुसार होती है इसलिए हिन्दुओ ने ब्रम्हा को सृष्टिकर्ता कहा जो समष्टिगत मन ही है। ईश्वर को कर्ता नहीं माना है। वह स्वयं कर्म नहीं करता है बल्कि कर्मों का कारण मात्र है जिसकी शक्ति से ही कर्म होते है। परमात्मा एक जीवनी शक्ति है एक जीवन धारा है जो सभी में बह रही है। कोई भी पदार्थ व जीव ऐसा नहीं जिसमे वह धारा न बह रही हो। यही अद्वैत का सार है।
इस जड़-चेतनात्मक जगत में ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करने के निम्न आधार है। इस विश्व जगत में सभी भेद व विषमताओं के बीच एक साम्य श्रृंखला एवं सुसामन्जस्य दिखाई देता है। विश्व के प्रत्येक व्यापार में व विभाग में एक अखण्डनीय नियम का साम्राज्य है। यह सृष्टि कोई भानुमति का कुनबा नहीं जो कही की ईट व कहीं का रोड़ा लेकर बनाई गई हो बल्कि इसका विकास एक सुनियोजित,सुदृढ़ एवं क्रमबद्ध ढंग से हुआ है इसलिए इसे किसी कुशल कलाकार कुशल इंजीनियर एवं कुशल कारीगर की ही रचना स्वीकार करना पड़ेगा। इसी से ईश्वर की सत्ता प्रमाणित होती है।बिना किसी पूर्व योजना के इतनी व्यवस्थित रचना संभव नहीं है और यह योजना किसी चेतन तत्व का ही कार्य हो सकता है। जड़ प्रकृति स्वयं कोई योजना नहीं बना सकती। प्रत्येक पदार्थ व जीव की गति,उत्पत्ति,स्थिति,और परिवर्तन के भीतर जो निगूढ़ उद्देश्य प्रतिभास होता है इसका कारण उस अद्वतीय महासत्ता को स्वीकार किये बिना निर्देश करना संम्भव नहीं है। वह परमात्मा ही इस जीव व जगत की सत्ता है जिसकी इच्छा द्वारा ही सभी व्यापार नियंत्रित होते है। इसलिए यह स्वीकार करना पड़ेगा की इस जीव व जगत से परे कोई ऐसी चैतन्य शक्ति है जिससे इसका विकास हुआ है तथा वही इस पर नियंत्रण कर रही है। जड़ पदार्थ कभी चेतन पर नियंत्रण नहीं कर सकता अतः चेतन की सत्ता ही सर्वोपरि सिद्ध होती है।
No comments:
Post a Comment