इस सृष्टि में ईश्वर ही एक मात्र ऐसी शक्ति है जिससे इस जड़ प्रकृति और चेतन -शक्ति दोनों का आविर्भाव होता है। वहीं इन दोनों का कारण है। इससे भिन्न कुछ भी नहीं है
ईश्वर की यह शक्ति जब एक्य रूप में रहती है तो उसे 'प्रलय 'की अवस्था कहते है तथा इसी को 'अव्यक्त 'कहते है। जब इसकी अभिव्यक्ति होती है ,तो सृष्टि के सृजन की प्रक्रिया आरम्भ होती है जो इसकी 'व्यक्त ' अवस्था है। यह सृष्टि उसी मूल शक्ति का विकास है। अव्यक्त से व्यक्त तथा व्यक्त से अव्यक्त का व्यापार सदा चलता रहता है
इसका न कोई आदि है न अन्त। इसलिए इसे 'अनादि ' व ' अनन्त ' कहा गया है।
ईश्वर की यह शक्ति पंचभौतिक जगत (पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु,आकाश )तथा मन,बुद्धि और अहंकार के रूप में आठ भेदो में व्यक्त होती है जैसा की गीता (७/४-५-६-७ )में कहा गया है -
"यह आठ प्रकार के भेदो वाली तो मेरी जड़-प्रकृति है तथा दूसरी मेरी चेतन प्रकृति है जिससे यह संपूर्ण जगत धारण किया जाता है। "
इस व्यक्त जगत में वह मूलीभूत खोता नहीं। वह पूर्ण भाव में जीवंत रहता है। इसी से सृष्टि में एक सूत्रता एवं सुसामन्जस्य है। ये दोनों प्रकृतियाँ अपने-अपने नियमों के अनुसार ही कार्य करती है। नियम विरुद्ध कुछ भी नहीं होता। जिस प्रकार एक ही कोष (सेल )विभाजित होकर पूर्ण शरीर का निर्माण करता है,उसी प्रकार एक ही चेतन शक्ति सम्पूर्ण सृष्टि की रचना कर देती है। ईश्वर इसका साक्षी होता है। उसकी दिव्य शक्ति के कारण ही उसकी अभिव्यक्ति होती है। यह जगत ईश्वर की देह है तथा वस्तु समूह उसके अंग है। जिस प्रकार किसी बीज में वृक्ष की सम्पूर्ण सत्ता अव्यक्त रूप में विद्यमान रहती है तथा व्यक्त होने पर वही पूर्ण वृक्ष का रूप लेती है उसी प्रकार सृष्टि से पूर्व सभी पदार्थ अव्यक्त अवस्था में कारण स्वरुप में विद्यमान रहते है। जिस प्रकार पुरुष का शुक्राणु अपने ही भीतर से पूरे शरीर की रचना करता है जिस प्रकार पक्षियों के अण्डों का रस अपने ही भीतर से पूरे पक्षी की रचना करता है उसी प्रकार वह एक ईश्वर ही अपनी शक्ति से पूरी सृष्टि की रचना कर देता है। यही आध्यात्म का रहस्य है। यह जगत ईश्वर की शक्ति का खेल है,उसी की लीला है। विकास चेतना-शक्ति के कारण ही होता है। जड़ में विकास की कोई सम्भावना नहीं है। उसका रूपांतरण हो सकता है विकास नहीं। इस चेतना के विकास की अंतिम स्थिति ही परमात्मा है।
सृष्टि रचना में यद्यपि ईश्वर ही मुख्या कारण है किन्तु वह किसी व्यक्ति की भाति क्रिया करके सृष्टि का निर्माण नहीं करता की वह एक-एक वस्तु का स्वयं निर्माण करे बल्कि विभिन्न शक्तियों का जब प्रकटीकरण होता है तो इन विभिन्न शक्तियों के परस्पर समिश्रण से नए-नए पदार्थों की रचना होती जाती है। यही यज्ञ प्रक्रिया है जो सृष्टि में निरंतर हो रही है। सूर्य के ताप से वाष्प बनती है वाष्प से बादल बनते है,बादल से वर्षा होती है ,वर्षा से अन्न की उत्तपत्ति होती है ,अन्न का सेवन कर मनुष्य जीवित रहता है। सृष्टि का इसी प्रकार विस्तार होता जाता है। यही यज्ञ प्रक्रिया है जिससे सृष्टि का विस्तार होता है। इसी से ईश्वर को कारण तत्व कहा है व सृष्टि को उसका कार्य कहा गया है अन्यथा यह सृष्टि उसकी विभिन्न शक्तियों का खेल मात्र है उसकी लीला या विलास है। इसमें प्रकृति ही सारा खेल खेल रही है। ईश्वर इसका कारण मात्र है। विज्ञान की खोज इन प्रकृति तत्वों तक ही सीमित है जबकि आध्यात्म ने उस कारण तत्व की भी खोज की है जिससे ये सभी क्रियाएं हो रही है। यह चेतन शक्ति ज्ञान स्वरुप है। ज्ञान ही क्रिया का कारण बनता है। बिना ज्ञान के कोई क्रिया नहीं हो सकती। इसलिए समष्टि में 'ईश्वर' तथा शरीर में 'आत्मा' के अस्तित्व को स्वीकार करना ही पड़ेगा।
ईश्वर की यह शक्ति जब एक्य रूप में रहती है तो उसे 'प्रलय 'की अवस्था कहते है तथा इसी को 'अव्यक्त 'कहते है। जब इसकी अभिव्यक्ति होती है ,तो सृष्टि के सृजन की प्रक्रिया आरम्भ होती है जो इसकी 'व्यक्त ' अवस्था है। यह सृष्टि उसी मूल शक्ति का विकास है। अव्यक्त से व्यक्त तथा व्यक्त से अव्यक्त का व्यापार सदा चलता रहता है
इसका न कोई आदि है न अन्त। इसलिए इसे 'अनादि ' व ' अनन्त ' कहा गया है।
ईश्वर की यह शक्ति पंचभौतिक जगत (पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु,आकाश )तथा मन,बुद्धि और अहंकार के रूप में आठ भेदो में व्यक्त होती है जैसा की गीता (७/४-५-६-७ )में कहा गया है -
"यह आठ प्रकार के भेदो वाली तो मेरी जड़-प्रकृति है तथा दूसरी मेरी चेतन प्रकृति है जिससे यह संपूर्ण जगत धारण किया जाता है। "
इस व्यक्त जगत में वह मूलीभूत खोता नहीं। वह पूर्ण भाव में जीवंत रहता है। इसी से सृष्टि में एक सूत्रता एवं सुसामन्जस्य है। ये दोनों प्रकृतियाँ अपने-अपने नियमों के अनुसार ही कार्य करती है। नियम विरुद्ध कुछ भी नहीं होता। जिस प्रकार एक ही कोष (सेल )विभाजित होकर पूर्ण शरीर का निर्माण करता है,उसी प्रकार एक ही चेतन शक्ति सम्पूर्ण सृष्टि की रचना कर देती है। ईश्वर इसका साक्षी होता है। उसकी दिव्य शक्ति के कारण ही उसकी अभिव्यक्ति होती है। यह जगत ईश्वर की देह है तथा वस्तु समूह उसके अंग है। जिस प्रकार किसी बीज में वृक्ष की सम्पूर्ण सत्ता अव्यक्त रूप में विद्यमान रहती है तथा व्यक्त होने पर वही पूर्ण वृक्ष का रूप लेती है उसी प्रकार सृष्टि से पूर्व सभी पदार्थ अव्यक्त अवस्था में कारण स्वरुप में विद्यमान रहते है। जिस प्रकार पुरुष का शुक्राणु अपने ही भीतर से पूरे शरीर की रचना करता है जिस प्रकार पक्षियों के अण्डों का रस अपने ही भीतर से पूरे पक्षी की रचना करता है उसी प्रकार वह एक ईश्वर ही अपनी शक्ति से पूरी सृष्टि की रचना कर देता है। यही आध्यात्म का रहस्य है। यह जगत ईश्वर की शक्ति का खेल है,उसी की लीला है। विकास चेतना-शक्ति के कारण ही होता है। जड़ में विकास की कोई सम्भावना नहीं है। उसका रूपांतरण हो सकता है विकास नहीं। इस चेतना के विकास की अंतिम स्थिति ही परमात्मा है।
सृष्टि रचना में यद्यपि ईश्वर ही मुख्या कारण है किन्तु वह किसी व्यक्ति की भाति क्रिया करके सृष्टि का निर्माण नहीं करता की वह एक-एक वस्तु का स्वयं निर्माण करे बल्कि विभिन्न शक्तियों का जब प्रकटीकरण होता है तो इन विभिन्न शक्तियों के परस्पर समिश्रण से नए-नए पदार्थों की रचना होती जाती है। यही यज्ञ प्रक्रिया है जो सृष्टि में निरंतर हो रही है। सूर्य के ताप से वाष्प बनती है वाष्प से बादल बनते है,बादल से वर्षा होती है ,वर्षा से अन्न की उत्तपत्ति होती है ,अन्न का सेवन कर मनुष्य जीवित रहता है। सृष्टि का इसी प्रकार विस्तार होता जाता है। यही यज्ञ प्रक्रिया है जिससे सृष्टि का विस्तार होता है। इसी से ईश्वर को कारण तत्व कहा है व सृष्टि को उसका कार्य कहा गया है अन्यथा यह सृष्टि उसकी विभिन्न शक्तियों का खेल मात्र है उसकी लीला या विलास है। इसमें प्रकृति ही सारा खेल खेल रही है। ईश्वर इसका कारण मात्र है। विज्ञान की खोज इन प्रकृति तत्वों तक ही सीमित है जबकि आध्यात्म ने उस कारण तत्व की भी खोज की है जिससे ये सभी क्रियाएं हो रही है। यह चेतन शक्ति ज्ञान स्वरुप है। ज्ञान ही क्रिया का कारण बनता है। बिना ज्ञान के कोई क्रिया नहीं हो सकती। इसलिए समष्टि में 'ईश्वर' तथा शरीर में 'आत्मा' के अस्तित्व को स्वीकार करना ही पड़ेगा।
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