जीव का स्वरूप
यह आत्मा शुद्ध चैतन्य स्वरूप है जो सर्वत्र समान रूप से व्याप्त है यह अपनी सुप्तावस्था में रहती है किन्तु जब इसका जागरण होता है। तो इसमें 'मैं 'भाव पैदा हो जाता है। कि 'मैं हूँ 'यही मैं भाव उसे ईश्वरीय चेतना से अपने को भिन्न अनुभव करने लगता है जो उसका अज्ञान मात्र है। इस 'मैं भाव 'के कारण वह कर्म में प्रवृत्त होता है तथा कर्म करने के कारण वह अपने को कर्ता मान लेता है की 'मैंने कर्म किया है। 'यही उसका 'अहंकार 'बन जाता है वह ईश्वर को भूल जाता है तथा यह भी नहीं जनता कि सभी कर्म प्रकृति के गुणों के अनुसार हे हो रहे हैं। यही उसका अज्ञान है इसी 'मैं 'भाव के कारण उसकी 'जीव ' संज्ञा हो जाती है जो कर्मो का कर्ता व उनके फलों का भोक्ता हो जाता है
पदार्थ में यह चेतना सुप्तावस्था में रहती है जिसे 'तुरीयावस्था ' कहते हैं वनस्पति में यह स्वप्नावस्था में रहती है ,पशु -पक्षियों में यह चेतना रूप में तथा मनुष्यों में स्व -चेतना के रूप में रहती है। पशु -पक्षियों में समूह चेतना होती है जिससे सभी एक ही प्रकार का व्यवहार करते है इनमे व्यवहारगत कोई भिन्नता नहीं होती। सभी की क्रियाएँ प्रकृति -तत्वों द्वारा ही संचालित होती है किन्तु मनुष्य की चेतना का इस 'मैं ' भाव के कारण 'व्यक्तिकरण 'हो जाता है। इसी व्यक्तिकरण के कारण उसका स्वतन्त्र विकास होता है। यह चिन्तन करने लगता है जिसे 'चित्त ' कहते है,मनन करने लगता है जिसे 'मन 'कहते है ,वह अच्छे -बुरे का निर्णय करने लगता है जिसे 'बुद्धि 'कहते है। इस प्रकार मन,बुद्धि,चित्त और अहंकार का विकास हो जाने से उसे 'अन्तःकरण' कहा जाता है। यही 'जीव' का स्वरूप बन जाता है। इसी से वह स्वयं कर्ता व भोक्ता बन जाता है। आत्मा न कर्ता है, न भोक्ता। अच्छे -बुरे कर्मों से ही उसके चित्त में संस्कार बनते है व इन्ही संस्कारो के कारण उसका जन्म और पुनर्जन्म होता है।यही उसका संसारचक्र है जिसमे वह जन्मों -जन्मों तक भटकता रहता है। निम्न योनियों में स्व-चेतना का विकास नहीं होता जिससे वे पाप- पुण्य के अधिकारी नहीं होते। वे प्रकृति के गुण -धर्म के अनुसार जी लेते है।
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